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पढ़ें हिंदी का पहला शोकगीत लिखने वाले कवि की 5 श्रेष्ठ कविताएं

Hindi's First Elegy: 'सरोज-स्मृति' को हिंदी का पहला शोकगीत माना जाता है. निराला ने यह शोकगीत अपनी बेटी के निधन के बाद लिखा था, जो महज 19 बरस की उम्र में दुनिया से विदा हो गई थी. इस गीत में वह लिखते हैं - धन्ये, मैं पिता निरर्थक था/कुछ भी तेरे हित न कर सका!

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महाप्राण निराला ने अपनी रचनाओं से हिंदी साहित्य को बहुत समृद्ध किया है.

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हिंदी का पहला शोकगीत निराला ने लिखा था 'सरोज-स्मृति'. दरअसल, निराला की बेटी का नाम था सरोज, जिसकी मृत्यु महज 19 बरस की उम्र में हो गई थी. तो अपनी बेटी की स्मृति में ही निराला ने यह शोकगीत लिखा था. इस शोकगीत में एक पिता ने अपनी बेटी के रूप-गुण का बहुत बारीक वर्णन किया है. कहने की जरूरत नहीं कि निराला ने हिंदी साहित्य को बहुत समृद्ध किया है. आज जैसी अतुकांत कविताएं हम पढ़ते हैं, उसकी शुरुआत निराला ने ही की थी. निराला ने हिंदी में गजल लिखने की भी शुरुआत की थी. आज उन्हीं निराला का जन्मदिन है. 

वैसे, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के जन्मदिन को लेकर विद्वान एकमत नहीं हैं. इसलिए उनकी अलग-अलग जन्मतिथियां भी मिल जाती हैं. बहरहाल, यह ध्यान दिलाना जरूरी है कि निराला के लेखन का रेंज जबर्दस्त रहा है. उनकी भाषा में विषय के अनुरूप अद्भुत रूप से बदल जाया करती थीं. कई बार ऐसा लगता है कि अगर निराला मध्ययुग में पैदा हुए होते (जिस वक्त छपाई की प्रणाली विकसित नहीं हुई थी) तो आज उनकी अलग-अलग रचनाओं को देखकर भ्रम हो सकता था कि मध्ययुग में निराला नाम के कई रचनाकार थे.

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'राम की शक्ति पूजा' में भाषा का जो नाद सौंदर्य है, जो तड़कती हुई भाषा है, वह 'सरोज-स्मृति' में बहुत ही शांत, करुणा से भरी हुई हो जाती है. 'भिक्षुक' में निराला की भाषा में जो दृश्यात्मकता है, वह 'कुकुरमुत्ता' में व्यंग्य से लबरेज हो जाती है. फिलहाल ऐसी ही विविधता भरी भाषा वाली निराला की 5 कविताएं DNA Lit पर पढ़ें.

बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु

बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु!
पूछेगा सारा गाँव, बंधु!

यह घाट वही जिस पर हँसकर,
वह कभी नहाती थी धँसकर,
आँखें रह जाती थीं फँसकर,
कँपते थे दोनों पाँव बंधु!

वह हँसी बहुत कुछ कहती थी,
फिर भी अपने में रहती थी,
सबकी सुनती थी, सहती थी,
देती थी सबके दाँव, बंधु!


तोड़ती पत्थर

वह तोड़ती पत्थर;
देखा मैंने उसे इलाहाबाद के पथ पर-
वह तोड़ती पत्थर।

कोई न छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार;
श्याम तन, भर बंधा यौवन,
नत नयन, प्रिय-कर्म-रत मन,
गुरु हथौड़ा हाथ,
करती बार-बार प्रहार:-
सामने तरु-मालिका अट्टालिका, प्राकार।

चढ़ रही थी धूप;
गर्मियों के दिन,
दिवा का तमतमाता रूप;
उठी झुलसाती हुई लू
रुई ज्यों जलती हुई भू,
गर्द चिनगीं छा गई,
प्रायः हुई दुपहर :-
वह तोड़ती पत्थर।

देखते देखा मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार;
देखकर कोई नहीं,
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई नहीं,
सजा सहज सितार,
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार।

एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,
ढुलक माथे से गिरे सीकर,
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा-
"मैं तोड़ती पत्थर।"


भिक्षुक

वह आता
दो टूक कलेजे को करता, पछताता
पथ पर आता।

पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक,
चल रहा लकुटिया टेक,
मुट्ठी भर दाने को — भूख मिटाने को
मुँह फटी पुरानी झोली का फैलाता —
दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता।

साथ दो बच्चे भी हैं सदा हाथ फैलाए,
बाएँ से वे मलते हुए पेट को चलते,
और दाहिना दया दृष्टि-पाने की ओर बढ़ाए।
भूख से सूख ओठ जब जाते
दाता-भाग्य विधाता से क्या पाते?
घूँट आँसुओं के पीकर रह जाते।
चाट रहे जूठी पत्तल वे सभी सड़क पर खड़े हुए,
और झपट लेने को उनसे कुत्ते भी हैं अड़े हुए !

ठहरो ! अहो मेरे हृदय में है अमृत, मैं सींच दूँगा
अभिमन्यु जैसे हो सकोगे तुम
तुम्हारे दुख मैं अपने हृदय में खींच लूँगा।


वर दे, वीणावादिनि वर दे

वर दे, वीणावादिनि वर दे!
प्रिय स्वतंत्र-रव अमृत-मंत्र नव
        भारत में भर दे!

काट अंध-उर के बंधन-स्तर
बहा जननि, ज्योतिर्मय निर्झर;
कलुष-भेद-तम हर प्रकाश भर
        जगमग जग कर दे!

नव गति, नव लय, ताल-छंद नव
नवल कंठ, नव जलद-मन्द्ररव;
नव नभ के नव विहग-वृंद को
        नव पर, नव स्वर दे!

वर दे, वीणावादिनि वर दे।


अभी न होगा मेरा अन्त

अभी न होगा मेरा अन्त
अभी-अभी ही तो आया है
मेरे वन में मृदुल वसन्त-
अभी न होगा मेरा अन्त

हरे-हरे ये पात,
डालियाँ, कलियाँ कोमल गात!

मैं ही अपना स्वप्न-मृदुल-कर
फेरूँगा निद्रित कलियों पर
जगा एक प्रत्यूष मनोहर

पुष्प-पुष्प से तन्द्रालस लालसा खींच लूँगा मैं,
अपने नवजीवन का अमृत सहर्ष सींच दूँगा मैं,

द्वार दिखा दूँगा फिर उनको
है मेरे वे जहाँ अनन्त-
अभी न होगा मेरा अन्त।

मेरे जीवन का यह है जब प्रथम चरण,
इसमें कहाँ मृत्यु?
है जीवन ही जीवन
अभी पड़ा है आगे सारा यौवन
स्वर्ण-किरण कल्लोलों पर बहता रे, बालक-मन,

मेरे ही अविकसित राग से
विकसित होगा बन्धु, दिगन्त;
अभी न होगा मेरा अन्त।

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