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जयंती विशेष: चंपारण के क्रांतिकारी और कवि रमेश चंद्र झा के किस्से

आजादी के अमृत महोत्सव के तहत रमेशचंद्र झा को राष्ट्रीय स्तर पर याद किया जा रहा है. बिहार के प्रमुख कवि-कथाकारों तथा स्वतंत्रता सेनानियों की श्रेणी में ये नाम प्रमुखता से शामिल है. 

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Ramesh Chandra Jha

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डीएनए हिंदी: मोतिहारी के फुलवरिया गांव में 8 मई 1928 को जन्मे रमेशचंद्र झा ने आजादी की लड़ाई में अहम भूमिका निभाई थी. वे क्रांतिकारी होने के साथ साथ दुष्यंत और दिनकर की श्रेणी के गीतकार और राष्ट्रवादी कवि भी थे. 1950 और 60 के दशक में बिहार की साहित्यिक जमीन पर ये नाम बेहद चर्चा में रहा. कलम के जादूगर कहे जाने वाले रामवृक्ष बेनीपुरी ने लिखा है, 'दिनकर के साथ बिहार में कवियों की जो नई पौध जगी, उसका अजीब हस्र हुआ. आंखे खोजती हैं इसके बाद आने वाली पौध कहां है. कभी कभी कुछ नए अंकुर जमीन की मोटी पर्त को छेद कर झांकते से दिखाई पड़ते हैं. रमेश भी एक अंकुर है और वह मेरे घर का है, अपना है. अपनापन और पक्षपात, सुनता हूं साथ-साथ चलते हैं, किन्तु तो भी अपनापन तो छोड़ा नहीं जा सकता, ममत्व की जंजीर को तोड़ा नहीं जा सकता. पक्षपात ही सही बेधड़क कहूंगा कि रमेश की चीजें मुझे बहुत पसंद आती रही हैं.' 

अखिल भारतीय कवि सम्मेलनों के मंच से जब भी रमेशचंद्र झा को बुलाया जाता, वे कभी अपने श्रोताओं को निराश नहीं करते. हरिवंशराय बच्चन ने अपने एक पत्र में लिखा है, 'रमेशचंद्र झा की गीतों में हृदय बोलता है और कला गाती है, मेरी मनोकामना है कि उनके मानस से निकले हुए गीत अनेकानेक कंठों में उनकी अपनी सी प्रतिध्वनि बन कर गूंजे.' रमेशचंद्र झा एक कवि और कथाकार तो थे ही, अंग्रेजr हुकूमत से लोहा लेने वाले देशभक्त भी थे. महज 14 साल की उम्र में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान, रमेशचंद्र पर कई ब्रिटिश पुलिस चौकी पर हमला करने और वहां से हथियार लूटने का आरोप लगाया गया था. इनके पिता पंडित लक्ष्मीनारायण झा और परिवार का हर सदस्य पहले से ही आजादी की लड़ाई में शामिल था.

सूचना और प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार ने भी आधिकारिक तौर पर उन्हें याद करते हुए लिखा है, 'रमेशचंद्र झा काफ़ी कम उम्र में ही छात्र नेता बन गए थे और अंग्रेजों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन आयोजित करने के लिए उन्हें स्कूल से बर्खास्त कर दिया गया था. उन्होंने 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया और कई बार जेल गए. जेल में रहते हुए उन्होंने भारतीय साहित्य का अध्ययन किया. उनके पिता, लक्ष्मी नारायण झा, एक प्रसिद्ध देशभक्त और स्वतंत्रता सेनानी थे, जिन्होंने ब्रिटिश शासन के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी और उन्हें भी कई बार गिरफ्तार किया गया था.' 

प्रसिद्ध इतिहासकारों और इतिहास लेखकों की मानें तो आज़ादी की लड़ाई में इतने कम उम्र के होते हुए भी रमेशचंद्र झा ने अपना बहुमूल्य योगदान दिया. 'Bihar Through the Ages' में रितु चतुर्वेदी और आरएस बक्शी ने लिखा है कि 'उन पर थाना डकैती और लूट-पाट के कई मुकदमे हुए. अंग्रेज़ी पुलिस चौकी लूटने का संगीन आरोप लगा, लेकिन उन्हें काफ़ी समय तक गिरफ़्तार नहीं किया जा सका.'

इधर वे खौफनाक फरारी जिंदगी का लुत्फ उठाते रहे, तो उधर उनके घर परिवार को न जाने कितनी बार लूटा जाता रहा. अंग्रेजों की पूरी फौज कभी भी इनके घर पहुंच जाती और घर का सारा समान लूट कर ले जाती. बर्तन और पुराने कपड़े भी नहीं छोड़े जाते. 'नया जीवन' और 'विकास' जैसी पत्रिकाओं के संपादक और भारतीय राष्ट्रीय पत्रकारिता के मीलस्तम्भ माने जाने वाले कन्हैयालाल मिश्रा प्रभाकर ने रमेशचंद्र झा के बारे में लिखा है, 'रमेशचन्द्र झा और उनके परिवार का इतिहास स्वतंत्रता संग्राम में बर्बाद होकर अट्टाहास करने का इतिहास है. वे उनमें हैं, जिन्होंने गुलामी की बेड़ियां तोड़ने को स्वयं हथकड़ियां पहनी हैं और खौफनाक फरारी की जिंदगी का लुत्फ भी उठाया है. वे उनमें हैं, जिन्होंने स्वतंत्रता पाई नहीं कमाई है और वे उनमें हैं जो स्वतंत्रता के लिए जान की बाज़ी लगा सकते हैं.'

एक लम्बे अरसे बाद जब इनकी गिरफ़्तारी हुई तो जेल-यातना का नया जीवन शुरू हुआ! आजादी की लड़ाई में शामिल होने से मिले इन्हीं अनुभवों को उन्होंने अपनी रचनाओं का आधार भी बनाया.

'धारों को देने चला विचार किनारों के 
मुट्ठी भर दाहक फूल लिए अंगारों के, 
मैं आग भरे पथ का अनमना मुसाफ़िर हूं 
निकला उकसाने बुझते दिए मजारों के!'

कल्पना के इतने सशक्त पंख लगने थे और इनके गीत क्रांतिकारियों के बीच फैलने लगे.  कहते हैं कि आज़ादी के पहले से जो गीत हवा में गूंजने शुरू हुए, वो जीवन भर गूंजते ही रहे. आजादी के बाद रमेशचंद्र झा राजनीति से अलग हुए और एक सच्चे साहित्य-साधक के रूप में कलम की स्याही कभी सूखने नहीं दी. 

'जो किरण के आगमन से टूट जाए
बेसहारा भोर का तारा नहीं हूं....!
बन गए हमदर्द कांटे चुभ गए जो
ज़िंदगी क्या मौत से हारा नहीं हूं!' 

अपने जीवन कल में उन्होंने 70 से भी ज़्यादा किताबें लिखीं, जिनमें - भारत देश हमारा, जय बोलो हिंदुस्तान की, जवान जगते रहो, स्वागतिका, मजार का दिया और प्रियंवदा जैसे कविता संग्रह और उपन्यास शामिल हैं. 

बिहार के ही कवि 'जानकी वल्लभ शास्त्री' ने उनके बारे में लिखा है, 'निठल्ले बैठे सोचते रहने वाले न समझें, पर कविवर रमेशचन्द्र झा जानते हैं कि गिर्दाबों से कैसे बच निकला जा सकता है. एक भाव को अनेक भावों के उलझाव, विरोध की भरमार और अमर वल्लरियों की हुंकार से कैसे सही सलामत उबारा जा सकता है. उन्होंने समकालीन साहित्य और उसके प्रतिनिधी रचनाकारों पर भी इतना अधिक लिखा है कि नई पीढ़ी उन्हें प्रेरणा का अक्षय श्रोत मानती है.'

15 अगस्त 1972, को भारतीय स्वाधीनता की 25वीं वर्षगांठ के अवसर पर भारतीय स्वाधीनता संग्राम में अग्रणी भूमिका निभाने के लिए इंदिरा गांधी ने ताम्र पत्र से नवाजा. 2 अक्टूबर 1993 को रानीगंज, पश्चिम बंगाल में आयोजित अखिल भारतीय भोजपुरी सम्मेलन में 'डॉ. उदय नारायण तिवारी सम्मान' से सम्मानित हुए. बिहार सरकार ने उनकी भोजपुरी कविता को पाठ्य-पुस्तक में भी शामिल किया है. 

भारत छोड़ो आंदोलन के इस क्रांतिकारी और कवि-कथाकार ने 7 अप्रैल, 1994 को आख़िरी साँस ली लेकिन उनके शब्दों का सूरज कभी अस्त नहीं हुआ.

'अकिंचन दीया साधना का अकेला...
जनम से जला है मरण तक जलेगा
अकिंचन दीया साधना का अकेला...
जनम से जला है मरण तक जलेगा..'

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