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Privy Purse: क्या होता है प्रिवी पर्स जिससे होती थी महारानी एलिजाबेथ की कमाई, इंदिरा गांधी ने भारत में लगाया था बैन

Queen Elizabeth II Death: महारानी एलिजाबेथ द्वितीय की कमाई में प्रिवी पर्स का बड़ा हिस्सा था. भारत में भी राजाओं को यह दिए जाता था. 

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Privy Purse: क्या होता है प्रिवी पर्स जिससे होती थी महारानी एलिजाबेथ की कमाई, इंदिरा गांधी ने भारत में लगाया था बैन
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डीएनए हिंदीः ब्रिटेन (Britain) की महारानी एलिजाबेथ द्वितीय (Queen Elizabeth II) का 96 साल की उम्र में निधन हो गया है. वह अपने पीछे अरबों रुपये की संपत्ति छोड़ गई हैं. गुडटू वेबसाइट की मानें तो वर्ष 2022 में महारानी एलिजाबेथ द्वितीय की अनुमानित कुल संपत्ति 365 मिलियन पाउंड यानी 33.36 अरब रुपये से ज्यादा थी. फोर्ब्स मैग्जीन के अनुसार, पूरे राजशाही परिवार की कुल संपत्ति 72.5 बिलियन पाउंड यानी 6,631 अरब रुपये से अधिक है. महारानी एलिजाबेथ को सोवेरिन ग्रांट वार्षिक तौर पर सरकार से प्राप्त होता था. प्रिवी पर्स महारानी की निजी आय होती है. आखिर ये प्रिवी पर्स होता क्या है और भारत में इसे इंदिरा गांधी ने क्यों बंद कर दिया था.  

क्या होता है प्रिवी पर्स?
प्रिवी पर्स दरअसल उस ग्रांट को कहा जाता है जो राजा-महाराजाओं को उनका खर्च चलाने के लिए दी जाती थी. इसकी तुलना एकमुश्त सैलरी से की जा सकती है. इसके लिए राजाओं को कोई काम भी नहीं करना होता था. जिस राजा की जितनी हैसियत होती है उसे उसी के मुताबिक प्रिवी पर्स दिया जाता था. दरअसल राजाओं के पास अगर कमाई को कोई जरिया नहीं होता था तो ऐसे में वह प्रिवी पर्स से ही अपना खर्च चलाते थे.  

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भारत में भी दिया जाता था प्रिवी पर्स
जब देश आजाद नहीं हुआ था तब यहां 500 से ज्यादा छोटी बड़ी रियासतें थीं. उनके अपने राज्य, प्रजा और अपने कानून थे. इन सबके उपर थे रियासतों के राजा. ब्रिटिश हुकूमत के दौरान से ही ये सभी रियासतें एक—एक करके संधि में बंध गई. इस संधि में तय किया गया कि राजा राजमहलों में रहेंगे और राजकाज करेंगे लेकिन उनके आर्थिक मामले ब्रिटिश हुकूमत के अधीन होंगे. इसके अलावा प्रजा राजा की नहीं सरकार की होगी. ब्रिटिश हुकूमत ने राजाओं को अपने खर्चे चलाने के लिए जेब खर्च देना शुरू किया. जिसकी जितनी हैसियत उसे उतनी पॉकेट मनी देना तय हुआ. इसी पॉकेट मनी को ‘प्रिवी पर्स’ कहा जाता रहा. 

आजादी के बाद भी मिलता था प्रिवी पर्स
इंडिया इंडिपेंडेंस एक्ट, 1935 के तहत लार्ड माउंटबेटन ने एक खाका तैयार किया. 1947 में आजादी के बाद रियासतों को पाकिस्तान और हिंदुस्तान सरकार में विलय करने की बात उठी. कुछ शर्तों के साथ राजाओं ने इस निर्णय को मान लिया. आजादी के बाद अधिकांश राजाओं ने भारत का हिस्सा बनना स्वीकार कर लिया. आजादी के बाद भारत में सरकार तो बनी लेकिन राजाओं की मौज जारी थी. इसके तहत उनका ख़ज़ाना, महल और किले उनके ही अधिकार में रह गए थे. यही नहीं, उन्हें केंद्रीय कर और आयात शुल्क भी नहीं देना पड़ता था. यानी, अब ये राजा कर (टैक्स) ले तो नहीं पाते थे पर न देने की छूट भी मिली हुई थी. कुल मिलाकर, इनकी शान-ओ-शौक़त बरकरार थी.

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इंदिरा गांधी ने बंद किया भारत में प्रिवी पर्स  
प्रिवी पर्स को बंद करने की शुरुआत 1967 में हो गयी थी. तब गृह मंत्री वाईबी चव्हाण को पूर्व राजाओं से इस विषय में बातचीत कर आम राय बनाने का ज़िम्मा दिया गया था. हालांकि बातचीत बेनतीजा रही. बाद में इंदिरा गांधी के कार्यकाल में 1969 में संसद में ‘प्रिवी पर्स’ ख़त्म करने के बाबत संवैधानिक संशोधन करने के लिए बिल पेश कर दिया. लोक सभा में तो इसे बहुमत से पारित कर दिया गया पर राज्यसभा में यह बिल एक वोट से गिर गया. इसके बाद राष्ट्रपति वीवी गिरी सरकार की सहायता को आगे आये और उनके आदेशानुसार सभी राजाओं और महाराजों की मान्यता रद्द कर दी गई. राजा और प्रजा का अंतर कम हो गया. 

सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा मामला  
राष्ट्रपति के आदेश के खिलाफ सभी राजा सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए. सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में राष्ट्रपति के आदेश को रद्द कर दिया. 

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1971 में बना कानून
जनता की भावना इस मुद्दे पर कांग्रेस के साथ थी. हवा इंदिरा गांधी के अनुकूल थी. उन्होंने सरकार भंग करके चुनावों की घोषणा कर दी. इंदिरा भारी बहुमत से चुनाव जीतकर सत्ता में लौटीं.  इंदिरा गांधी की सरकार इस विधेयक को 1971 में दोबारा लेकर आई. संविधान में 26 वां संशोधन करके ‘प्रिवी पर्स’ को हमेशा के लिए बंद कर दिया. उन्होंने इस बिल को लाने के पीछे सारे नागरिकों के लिये सामान अधिकार एवं सरकारी धन का व्यर्थ व्यय का हवाला दिया.

क्या था प्रिवी पर्स का फार्मूला
भारत जब आजाद हो रहा था, तब यहां करीब 570 के आसपास प्रिसंले स्टेट थे. इन सभी को भारत में विलय के बाद एक खास तरीके से प्रिवीपर्स की रकम इनके राजाओं के लिए तय की गई. इसका फार्मूला था उन प्रिंसले स्टेट से सरकार को मिलने वाले कुल राजस्व की करीब साढ़े आठ फीसदी रकम, जिसे आने वाले सालों में घटते जाना था. उत्तराधिकारियों को और कम रकम दी जाने वाली थी.

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मैसूर के राजपरिवार को मिलता था सबसे ज्यादा प्रिवी पर्स
सबसे ज्यादा प्रिसी पर्स मैसूर के राजपरिवार को मिला, जो 26 लाख रुपए सालाना था. हैदराबाद के निजाम को 20 लाख रुपए मिले. वैसे प्रिवी पर्स की रेंज भी काफी दिलचस्प थी. काटोदिया के शासक को प्रिवी पर्स के रूप में महज 192 रुपए सालाना की रकम मिली. 555 शासकों में 398 के हिस्से 50 हजार रुपए सालाना से कम की रकम आई. 1947 में भारत के खाते से सात करोड़ रुपए प्रिसी पर्स के रूप में निकले. 1970 में ये रकम घटकर चार करोड़ रुपए सालाना रह गई.  

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