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'He is not vote puller,' क्या भारत जोड़ो यात्रा से भी नहीं बदली राहुल की छवि

राहुल की सबसे बड़ी कमी है कि उन्होंने अपने कंधो पर कोई भी जिम्मेदारी नहीं ली. चाहे वो INDIA गठबंधन को साथ लेकर चलने की बात हो या फिर कांग्रेस की. वो सभी से भागते नजर आए. इससे उनकी भारत जोड़ो यात्रा के दौरान जो इमेज बनी थी, वो फिर से फिसल गई है.

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क्या राहुल गांधी बदल गए हैं? क्या लोगों के और देशवासियों के दिलों पर वह छाप छोड़ पा रहे हैं. पिछले लगभग डेढ़ वर्षों से वो लगातार देश की सड़क पर ही हैं. कभी भीगते हुए जन सभा को संबोधित करते हैं तो कभी घंटों-घंटों सड़क पर चलते हैं तो कभी आदिवासी महिलाओं के साथ महुआ चुनते हुए उनसे घुल मिल जाते हैं. क्या ऐसा करना देश के राजनेता के लिए काफी है. राहुल की मेहनत क्यों रंग लाती हुई 2024 के चुनाव में भी नजर नहीं आ रही है, तब जब 2022 -23 में हुए कई राज्यों के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को मिली बढ़त को राहुल की बदलती छवि का नतीजा बताया गया था. 

पिछले दिनों चुनाव प्रचार के लिए निकले राहुल अचानक मध्य प्रदेश के उमरिया में महुआ चुनती आदिवासी महिलाओं को देखते ही रुक गए और खुद भी वही करने लगे, उन्होंने उस फल को चखा भी. इस दौरान उन्होंने कुछ महिलाओं से उनकी जिंदगी से जुड़ी कई बातें भी कीं. यह पहली बार नहीं था, जब राहुल इस तरह से कहीं अचानक रुके हों और लोगों से बातचीत शुरू कर दी हो. इससे पहले सिर्फ नई दिल्ली में ही वो कुली से मिलने से लेकर बढ़ई तक से मिल चुके हैं. उन्होंने ट्रक ड्राइवर के साथ पूरी रात सड़क पर बिताई भी है. 

इस डिजिटल युग में आपकी छवि हो या फिर राजनेता की बहुत महत्वपूर्ण हो गई है. ये छवि ही है जो नेताओं को आगे बढ़ाने में मदद तो करती है साथ ही उनके करियर में नया आकार देती है. उनके विचारों, मूल्यों और क्षमता से उन्हें अलग भी कर देती है. यह एक दूसरे से की गई बातचीत, प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के साथ साथ सोशल मीडिया पर तेजी से फैलती है और जनता के बीच राजनेता की एक छवि बनाती है. जिस तरह से 2014 से राहुल गांधी की छवि 'पप्पू' की बनाई गई, वो आज तक इससे उबर नहीं पाए हैं. 


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क्यों फीकी फीकी है राहुल की छवि

राहुल अपनी छवि सुधारने और आम जन का नेता खुद को साबित करने के लिए देश की सड़कों पर भी उतर चुके हैं. पहले उन्होंने भारत जोड़ो यात्रा की तो देश में उनका खूब बज भी क्रिएट हुआ. विपक्षी पार्टी उनके खिलाफ बातें भी बनाने लगी. राहुल देश के जन नेता बनकर शरद पवार और मामा चौहान की तरह झमाझम बारिश के बीच भाषण देते भी दिखाई दिए. उन्होंने दो पैरों पर कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर तक पैदल यात्रा कर डाली, लेकिन 2024 के आम चुनाव में आज भी वो चमक दमक दिखाने में नाकामयाब ही लग रहे हैं. 

राहुल ने अपनी पहली भारत जोड़ो यात्रा सितंबर 2022 में शुरू की थी जो जनवरी 2023 तक चली. फिर उन्होंने जनवरी 2024 में एक बार फिर यात्रा शुरू की इस बार ये सेकेंड फेज था तो इस यात्रा का नाम 'भारत जोड़ो न्याय यात्रा' था. जो मणिपुर से मुंबई तक की गई और यह मार्च को खत्म हुई.


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महत्व तो बढ़ा लेकिन नाकाफी रहा

सितंबर 22 से जनवरी 23 तक चली राहुल की यात्रा ने एक बज तो क्रिएट किया. कांग्रेस के नेताओं के साथ साथ बॉलीवुड से जुड़ी हस्तियों और समाज सेवकों सहित कई गणमान्य लोगों को इस यात्रा में बुलाया गया और वो आए भी. राहुल सोशल मीडिया से लेकर टीवी न्यूज और समाचार पत्रों तक में छाए रहे लगा कि राहुल की इमेज बदल रही है.लेकिन अब जब चुनाव सर पर है तो यह जानना बहुत जरूरी है कि क्या सचमुच इमेज बदली?

पॉलिटिकल कैंपेन एडवाइजर और पॉलिटिकल पॉलिसी प्रोफेशनल दिलीप चेरियन कहते हैं, " महत्व तो बहुत बढ़ा है."  वह आगे कहते हैं, "लोगों का ध्यान चुनाव की तरफ तो बढ़ा लेकिन पोजिटिविटी के फोकस में कमी बरकरार रही."
 हालांकि जिस तरह का बज भारत जोड़ो यात्रा में क्रिएट हुआ था वो बज 2024 की न्याय यात्रा में दिखाई नहीं दिया.

चेरियन आगे कहते हैं कि न्याय यात्रा का जो संदेश लोगों में जाना चाहिए था वो काफी कमजोर रहा है. जिस तरह से विपक्ष को काउंटर करना चाहिए था और उसके लिए 100 में से राहुल को नंबर देने हों तो मैं सिर्फ 60 ही दूंगा. 

वहीं राहुल की इस इमेज बिल्डिंग के सवाल पर सामाजिक वैज्ञानिक बदरी नारायण कहते हैं कि फर्क तो पड़ा है लेकिन "वह बहुत थोड़ा है."

राहुल की जो निगेटिव और पप्पू वाली इमेज के सवाल पर वो कहते हैं कि, "वो जो निगेटिव इमेज क्रिएट हो गई थी इन दो भारत जोड़ों यात्राओं ने उसपर फर्क तो डाला है लेकिन वो नाकाफी है. "


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राहुल का देश की सड़क पर रखने और इमेज बनाने का टीम राहुल का उद्देश्य उन्हें एक जन-समर्थक, संवेदनशील राजनेता के रूप में पेश करना ज्यादा प्रतीत हुआ जो दलितों, ओबीसी, गरीबों और अन्य हाशिए के वर्गों के मुद्दों को उठा रहा था.  लेकिन टीम ये भूल गई कि कोई भी सार्वजनिक छवि शून्य में नहीं बनती. 

राहुल की टीम  का उद्देश्य उन्हें एक जन-समर्थक, संवेदनशील राजनेता के रूप में पेश करना ज्यादा प्रतीत हुआ जो दलितों, ओबीसी, गरीबों और अन्य हाशिए के वर्गों के मुद्दों को उठा रहा था.  लेकिन टीम ये भूल गई कि कोई भी सार्वजनिक छवि शून्य में नहीं बनती..

कहां कमी रही इस पर दिलीप कहते हैं, उन्होंने अपने कंधो पर कोई भी जिम्मेदारी नहीं ली. चाहें वो INDIA गठबंधन को साथ लेकर चलने और लीड करने की हो या फिर कांग्रेस की. वो सभी से भागते और नजरअंदाज करते नजर आए. इससे उनकी भारत जोड़ो यात्रा के दौरान जो इमेज बनी थी वो फिर से फिसल गई है.

बीजबी पंत सोशल साइंस इंस्टीट्यूट के निदेशक बदरी नारायण कहते हैं, "राहुल वोट खींचना नहीं जानते हैं."

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