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Maharashtra: सत्ता जाने के बाद उद्धव के सामने है शिवसेना बचाने की चुनौती, जयललिता के इस फॉर्मूले पर टिकी है आस

Maharashtra में सत्ता की लड़ाई हारने के बाद उद्धव ठाकरे के सामने सबसे बड़ी चुनौती शिवसेना को बचाने की है क्योंकि एकनाथ शिंदे पार्टी पर अपना दावा ठोक रहे हैं.

Maharashtra: सत्ता जाने के बाद उद्धव के सामने है शिवसेना बचाने की चुनौती, जयललिता के इस फॉर्मूले पर टिकी है आस
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डीएनए हिंदी: महाराष्ट्र की राजनीति में पूर्व सीएम उद्धव ठाकरे (Uddhav Thackeray) राज्य की सत्ता की लड़ाई तो हार गए हैं क्योंकि उन्हें बहुमत न होने के कारण जहां इस्तीफा देना पड़ा. वहीं उनकी अगली और सबसे बड़ी चुनौती यदि कोई है तो वह शिवसेना को बचाने से जुड़ी है क्योंकि नए मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे (Eknath Shinde) स्पष्ट तौर पर अपने गुट को असली शिवसेना बता रहे हैं. ऐसे में सवाल यह है कि क्या शिंदे गुट से पार्टी बचाने की लड़ाई उद्धव ठाकरे जीत पाएंगे या नहीं. 

भारतीय राजनीति में कई बार पार्टियों में इस तरह की बगावत देखने को मिलती रही हैं. वहीं इस मामले में यदि उद्धव की उम्मीद किसी पर टिकी है तो वो तमिलनाडु की पूर्व सीएम जे जयलिलता के पार्टी पर अपना हक जमाने की घटना ही है. तो चलिए समझते हैं कि आखिर जयाललिता का मामला क्या था. 

क्या था जयाललिता का विवाद

दरअसल यह मामला बात 1987 का है. उस वक्त तमिलनाडु में ऑल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम सत्ता में थी.  एमजी रामचंद्रन मुख्यमंत्री थे. 24 दिसंबर 1987 को रामचंद्रन का निधन हो गया. उनके निधन के साथ AIADMK के दो गुटों में पार्टी पर नियंत्रण के लिए संघर्ष शुरू हो गया. एक गुट की अगुआई एमजी रामचंद्रन की पत्नी जानकी रामचंद्रन कर रही थीं. वहीं दूसरे गुट की अगुआई पार्टी की सचिव जयललिता कर रही थीं. 

पार्टी के धड़े ने जानकी को पार्टी महासचिव चुन लिया तो जयललिता धड़े ने कार्यकारी मुख्यमंत्री नेदुनचेहिन को पार्टी का महासचिव चुन लिया. दोनों गुटों की ओर से एक-दूसरे पर पुलिस केस तक हुए. दोनों धड़ों ने राज्यपाल के सामने अपने-अपने दावे पेश किए. राज्यपाल ने जानकी रामचंद्रन को सरकार बनाने का न्योता दिया क्योंकि उस वक्त ज्यादातर विधायक जानकी के साथ थे. जानकी को 100 से ज्यादा विधायकों का समर्थन था. वहीं, जयललिता के पास केवल 30 विधायकों का समर्थन था. 

सदन में हुआ था बवाल
 
28 जनवरी 1988 को जब जानकी सरकार को सदन में बहुमत साबित करना था. उस दिन विधानसभा में जमकर हिंसा हुई. पुलिस ने सदन के अंदर लाठीचार्ज तक किया. नतीजा ये रहा कि राज्य में राष्ट्रपति शासन लग गया. तीन हफ्ते पुरानी जानकी सरकार को बर्खास्त कर दिया गया. इसके बाद दोनों धड़ों में पार्टी पर कब्जे की लड़ाई चुनाव आयोग पहुंच गई.

एक धड़े के पास ज्यादातर विधायकों और सांसदों का समर्थन था तो दूसरे धड़े के पास संगठन का समर्थन था. इस स्थिति में आयोग ने चुनाव चिह्न और पार्टी का नाम दोनों फ्रीज कर दिया. 1989 के विधानसभा चुनाव में जानकी गुट को एआईएडीएमके(जेआर) तो जयललिता गुट को एआईएडीएमके (जेएल) नाम मिला. दोनों पार्टियां चुनाव लड़ीं. जयललिता धड़े को 21 फीसदी से ज्यादा वोट मिले. पार्टी 27 सीटें जीतने में सफल रही. वहीं, जानकी गुट को महज नौ फीसदी वोट और दो सीटों से संतोष करना पड़ा. 

राज्य में डीएमके की सरकार बनी और जयललिता नेता प्रतिपक्ष बनीं. इसके बाद तय हो गया था पार्टी और चुनाव निशान जयललिता धड़े के पास जा सकता है. हालांकि, चुनाव के बाद दोनों धड़ों का विलय हो गया और जयललिता पार्टी की नेता बनीं. पार्टी का चुनाव निशान भी उनके पास आया. विधानसभा चुनाव के महज कुछ महीने बाद हुए लोकसभा चुनाव में पार्टी को राज्य की 39 में से 38 सीटों पर एआईएडीएमके और कांग्रेस गठबंधन को जीत मिली. वहीं, सत्ताधारी डीएमके को एक भी सीट पर जीत नसीब नहीं हुई.

संगठन मजबूत कर रहे हैं उद्धव और आदित्य

उद्धव और आदित्य ठाकरे जिस तरह पूरा जोर संगठन को एकजुट करने में लगा रहे हैं.  इससे उन्हें जयललिता की तरह ही पार्टी पर कब्जा बरकरार रखने की उम्मीद होगी. एक्सपर्ट कहते हैं कि ऐसा होने पर लड़ाई काफी लंबी चल सकती है क्योंकि राज्य में फरवरी 2024 में लोकसभा चुनाव होने हैं. ऐसे में जयाललिता के विवाद के आधार पर शिवसेना पर अपना हक साबित करने के लिए उद्धव और उनके बेटे आदित्य जनता के बीच संगठन को मजबूत कर रहे हैं. 

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किसकी होगी शिवसेना

शिवसेना के संख्या बल की बात करें तो बागी गुट के पास विधायकों के साथ ज्यादातर सांसदों का भी समर्थन बताया जा रहा है.  पार्टी पर दावे की लड़ाई अगर बढ़ती है तो मामला चुनाव आयोग भी जा सकता है. इस स्थिति में चुनाव आयोग तय करेगा की असली शिवसेना किसके पास है. वहीं अगर दोनों गुटों में समझौता नहीं होता है तो फैसला चुनाव आयोग से होगा. 1968 का इलेक्शन सिंबल्स (रिजर्वेशन एंड अलॉटमेंट) ऑर्डर चुनाव आयोग (ईसी) को किसी पार्टी के चुनाव चिह्न पर फैसला लेने की छूट देता है. चुनाव चिह्न किसे मिलेगा, इसका फैसला करने के लिए निर्वाचन आयोग पूरी तरह स्वतंत्र है. यह भी हो सकता है कि चुनाव आयोग चुनाव चिह्न किसी को न दे. 

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