पीपल
1946 में जॉर्ज ऑर्वेल ने शानदार लेख लिखा था मैं क्यों लिखता हूं? लेखन के अलग पक्षों के बारे में बात करते हुए ऑरवेल अपने लेखन के प्रति भी निर्मम हैं.
मूल आलेख : जॉर्ज ऑरवेल
अनुवाद - सूरज प्रकाश
डीएनए हिंदी : मैं तब बहुत छोटा था, शायद पांच या छह बरस का, जब मुझे यह अहसास हुआ कि बड़ा होकर मैं लेखक बनूंगा. जब मैं सत्रह से चौबीस बरस के बीच की उम्र में था तो मैंने पूरे होशो हवास में इस ख्याल को दरकिनार करने की कोशिश की लेकिन मुझे पता था कि मैं अपनी चेतना और समझ के खिलाफ जा रहा हूं और देर-सबेर मुझे यह पता चल ही चुका था कि मुझे लेखक ही बनना है और किताबें लिखनी हैं.
मैं अपने तीन भाइयों में बीच वाला बच्चा था लेकिन मुझसे बड़े और दूसरी तरफ छोटे भाई की उम्र में पांच बरस का फासला रहा होगा और मैंने शायद ही आठ बरस की उम्र से पहले अपने पिता को कभी देखा हो. यह कारण रहा तथा कुछ और कारण भी रहे कि मैं कुछ हद तक अकेला होता चला गया और जल्दी ही मैंने कुछ ऐसी भली न लगने वाली आदतें भी पाल लीं कि मैं अपने पूरे स्कूली दिनों में अलोकप्रिय होता चला गया. मुझमें एक आदत विकसित हो गयी थी जो अक्सर अकेले रहने वाले बच्चों में हो जाती है कि मैं कहानियां गढ़ने लगा और काल्पनिक व्यक्तियों के साथ बातें करने लगा. मुझे लगता है कि शुरुआत से ही मेरी साहित्यिक महत्वाकांक्षाएं इस तथ्य के साथ घुल मिल गयी थीं कि मैं अलग थलग हूं और मेरी कम कीमत आंकी गयी है. मैं जानता था कि मुझमें शब्दों के साथ खेलने का गुण है और मुझमें ख़ासियत है कि मैं अप्रिय तथ्यों का भी सामना करने की कूवत रखता हूं और मुझे लगा कि इससे मुझे अपनी एक ऐसी निजी दुनिया रचने में बहुत मदद मिली कि मैं हर रोज़ की अपनी ज़िंदगी में सामने आने वाली असफलताओं के लिए खुद को जिम्मेवार ठहरा सकूं.
जब 4 या 5 बरस का था तो पहली कविता लिखी
इसके बावज़ूद मैंने गंभीर होकर जितना भी लिखा है या जिसमें गंभीरता का दावा किया जा सकता था, मैंने पूरे बचपन में और लड़कपन में जो कुछ भी लिखा, वह गिनती में 6 पन्ने भी नहीं थे. मैं जब 4 या 5 बरस का था तो मैंने अपने पहली कविता लिखी थी. मैंने कविता कही और मेरी मां ने इसे लिखने का काम किया था. मुझे इसके बारे में कुछ भी याद नहीं है सिवाय इसके कि यह एक बाघ के बारे में थी और बाघ के कुर्सी जैसे दांत थे. एक अच्छा मुहावरा था लेकिन मैं यह कल्पना करता हूं कि यह ब्लेक की कविता बाघ की नकल ही थी. जब मैं 11 बरस का हुआ तो पहला विश्व युद्ध 1914-18 शुरू हो चुका था और तब मैंने देश भक्ति की एक कविता लिखी थी जो एक स्थानीय अखबार में छपी थी और उसके 2 बरस बाद किचनर की मृत्यु पर एक और कविता छपी थी. बीच बीच में, जैसे जैसे मैं थोड़ा बड़ा होता गया, मैं जॉर्जियाई शैली में प्रकृति की अधूरी और आम तौर पर खराब कविताएं लिखता रहा. मैंने एक कहानी लिखने की भी कोशिश की थी लेकिन उसमें मैं बुरी तरह से धराशाई हुआ था. उन बरसों में कहने को कुल मिला कर यही वह तथाकथित गंभीर साहित्य लेखन था जिसे मैंने कागज़ पर उतारा था.
अलबत्ता, इस सारे वक्त के दौरान मैं साहित्यिक गतिविधियों में मसरूफ़ रहा. शुरुआत के तौर पर, मैं किसी के भी कहने पर, तेजी से, आसानी से और बिना किसी तरह की खुशी पाए कुछ भी लिख कर दे सकता था. स्कूल के काम के अलावा मैंने हंसी मज़ाक का पुट लिए कुछ कविताएं लिखीं और बहुत तेजी से लिखीं. मैं पलक झपकते ही कविता हाजिर कर देता था. 14 बरस की उम्र में मैंने एक हफ्ते के भीतर एरिस्टोफेनेस की नकल उतारते हुए एक गीतात्मक नाटक लिखा और मैंने स्कूल की मुद्रित और हस्तलिखित पत्रिकाओं का संपादन भी किया. ये पत्रिकाएं बहुत खराब हालत में निकलती थीं और इनमें मैं कोई ज्यादा मेहनत नहीं करता था जैसे कि अब मैं सस्ती पत्रकारिता के साथ करता हूं लेकिन इन सबके साथ ही साथ मैं पंद्रह या उससे भी अधिक बरसों तक मैं एक बिल्कुल ही अलग तरह का साहित्यिक अभ्यास करता रहा. और यह काम था खुद के बारे में निरंतर कहानी गढ़ता रहता था. यह तरह की डायरी थी जो सिर्फ मेरे दिमाग में चलती रहती थी. मुझे लगता है कि सभी बच्चों और किशोरों की यह एक आदत होती है कि इस तरह का काम करते रहें. जब मैं बहुत छोटा सा बच्चा था तो यह कल्पना किया करता था कि मैं रॉबिनहुड हूं और मैं हैरान कर देने वाले रोमांचकारी कारनामों का नायक हूं. जल्दी ही मेरी खुद की कहानी बहुत ही खराब तरीके से आत्म मुग्धता के मोह से बाहर आ गयी. ये खुद को देखने की कहानी नहीं रही और यह सिर्फ इस तरह के कामों का लेखा जोखा भर रहा जो मैं कर रहा था और जो कुछ मैं देख रहा था.
कई बार तो कई कई मिनटों तक इस तरह की बातें मेरे दिमाग में चलती रहतीं - उसने दरवाजे को धकेला और कमरे में प्रवेश किया. सूरज की एक पीली किरण मेज पर बिछे पतले मलमल के पर्दे से छनकर आ रही थी. वहां पर एक आधी खुली हुई माचिस रखी हुई थी. पास में एक स्याही की दवात रखी हुई थी. अपना दायां हाथ जेब में डाले हुए वह चलकर खिड़की तक आया. खिड़की से गली में एक चितकबरी बिल्ली एक सूखी पत्ती के पीछे चली जा रही थी वगैरा-वगैरा. मेरी यह आदत तब तक चलती रही जब तक मैं 25 बरस का नहीं हो गया. तब तक ये मेरे गैर-साहित्यिक बरस थे. हालांकि मुझे सही शब्द खोजने पढ़ते थे और मुझे मिल भी जाते थे लेकिन मुझे लगता था कि इस तरह की यह बयानबाजी मेरे दिल के खिलाफ जा रही है और यह सब कुछ बाहरी दबाव से हो रहा है. मुझे लगता है कि कहानी में अलग-अलग लेखकों की शैली, जिन्हें मैं पसंद करता था, सामने आनी चाहिये लेकिन जहां तक मुझे याद आता है ये एक जैसी सुगठित ब्यौरे बाजी बन कर रह जाती थी.
शब्दों में छुपे संयोजन की ख़ुशी
जब मैं लगभग 16 बरस का था तो अचानक मुझे शब्दों का, शब्दों में छुपे संयोजन की खुशी का पता चला. मेरा मतलब शब्दों की ध्वनि और उनके जुड़ाव का. पैराडाइज लॉस्ट में कुछ पंक्तियां हैं जो मुझे अब बहुत हैरान करने वाली नहीं लगतीं. उन्हें पढ़ कर मेरी पीठ में सिहरन सी हुई. सही वर्तनी में इन्हें लिखे जाने ने मुझे अतिरिक्त खुशी से भर दिया था. जहां तक चीजों को व्यक्त करने की ज़रूरत थी मैं इन सब के बारे में पहले से जानता था और यह बात मेरे लिए स्पष्ट है कि मुझे किस तरह की किताबें लिखनी हैं और मैं कैसी किताबें लिख कर अपने आप को अभिव्यक्त करना चाहता हूं. मैं ढेर सारे वास्तविक लगने वाले उपन्यास लिखना चाहता था जिनका अंत दुखद हो. उसमें ढेर सारे ब्यौरे दिए जाएं और बांध लेने वाले रूपक हों. उनमें ऐसे सनसनीखेज पैराग्राफ हों और उसमें ढेर सारे ऐसे शब्द इस्तेमाल किए गए हों जिनमें ध्वन्यात्मकता हो. दरअसल जो मैंने अपना पहला उपन्यास पूरा किया, बर्मीज़ डेज़, जो मैंने 30 बरस की उम्र में लिखा था और जिसके बारे में बहुत पहले कल्पना कर चुका था, शायद इसी तरह का उपन्यास है.
Book Review : “अद्भुत प्रेम की दास्तान है अम्बपाली” - धीरेंद्र अस्थाना
लेखक के प्रारम्भिक विकास के बारे में जानने की अहमियत
मैं यह सारी पृष्ठभूमि की जानकारी इसलिए दे रहा हूं क्योंकि मुझे नहीं लगता कि जब तक आप लेखक के प्रारंभिक विकास के बारे में न जानते हों, आप लेखक के लिखने के मकसद को नहीं जान सकते. वह किन विषयों पर लिखना चाहता है वह इसी बात से तय हो जाता है कि वह किस काल खंड में रहा है. यह बात कम से कम उतार चढ़ाव वाले, क्रांतिकारी काल खंड के बारे में ज्यादा सही है जैसे वक्त में से हम निकल कर आये हैं, क्योंकि लिखना शुरू करने से पहले वह एक ऐसा संवेदनात्मक नज़रिया हासिल कर चुका होगा जिससे वह कभी भी पूर्ण तरह से पलायन नहीं कर सकेगा. इसमें कोई शक नहीं कि यह उसका काम है कि अपनी मनोदशा को, प्रकृति को अपने वश में रखे, और किसी प्रतिकूल मूड में किन्हीं अपरिपक्व पलों में खुद को फंसने से बचाये, लेकिन अगर वह अपने शुरुआती जीवन के प्रभावों से पूरी तरह से मुक्त होना चाहता है तो उसे अपने लिखने की इच्छा को मारना होगा. उसकी लिखने की इच्छा मर चुकी होगी. लेखन से रोज़ी रोटी कमाने के मकसद के अलावा, मुझे लगता है कि किसी भी हाल में लिखने के पीछे चार बड़ी बातें काम करती हैं. ये कमोबेश सभी लेखकों में कम ज्यादा अंश में मौजूद होते हैं और किसी एक लेखक में समय-समय पर यह दूसरे लेखक से अलग भी हो सकते हैं. यह इस बात पर निर्भर करता है कि वह किस माहौल में रहता है. ये हैं-
(i) विशुद्ध अहम भाव - ज्यादा सयाना दिखने की ऐसी इच्छा, हमारे बारे में ज्यादा बात की जाए, हमें मौत के बाद में भी याद किया जाए, जिन लोगों ने बचपन में हमें डांटा फटकारा था, उन बड़े लोगों की पीठ पर सवार हो सकें, उनसे शाबाशी पाने की इच्छा, वगैरा-वगैरा! ये दिखावा छल कपट ही कहा जाएगा कि यह हमारा मकसद नहीं था और मज़बूत मकसद नहीं था.
लेखक लोगों की इस तरह की खासियत वैज्ञानिकों, कलाकारों, राजनीतिज्ञों, वकीलों, सैनिकों, सफल कारोबारियों के साथ, संक्षेप में कहें, तो मानवता के ऊंचे पायदान पर बैठे सब लोगों की तरह होती है. बड़ी तादाद में अधिकांश लोग, कहा जाए तो आमतौर पर बहुत अधिक स्वार्थी नहीं होते. वे आमतौर पर 30 बरस की उम्र के आसपास पहुंचने पर व्यक्तिवाद का जामा पूरी तरह से उतार सकते हैं और आमतौर पर दूसरों के लिए जीवनयापन शुरू कर देते हैं या फिर नीरस ज़िंदगी जीने लगते हैं लेकिन फिर भी ऐसे कुछ-कुछ लोग होते हैं जो आखिर तक खूबसूरत, उदार और इच्छुक लोग होते हैं जो आखिर तक अपने तरीके से जीवन जीते रहते हैं.
लेखक लोग इसी वर्ग से ताल्लुक रखते हैं. अगर मैं कहूं कि गंभीर लेखक कुल मिला कर पत्रकारों की तुलना में अधिक अहंकारी और आत्म केंद्रित होते हैं. बेशक उन्हें रुपए पैसे का ज्यादा लालच नहीं रहता.
(ii) कलात्मक उत्साह - बाहरी दुनिया में सौंदर्य की संकल्पना या दूसरे शब्दों में कहें तो शब्दों में और उनके सही क्रम में होती है. किसी एक आवाज़ पर दूसरी आवा़ज़ के प्रभाव की खुशी, सुगठित गद्य या किसी कहानी के लय ताल की खुशी में होती है. कोई ऐसा अनुभव शेयर करना जो कोई यह सोचे कि कीमती है और इसे गवाया नहीं जाना चाहिए. सौंदर्यपरक मकसद अधिकांश लेखकों में बहुत कमज़ोर होता है लेकिन पर्चीबाजी करने वाले या कोर्स की किताबें लिखने वाले लेखकों के खज़ाने में भी ऐसे शब्दों और वाक्यों का जखीरा होता है जो उन्हें गैर उपयोगी कारणों से अच्छा लगता होगा; या वे टाइपोग्राफी के बारे में बहुत शिद्दत से सोचते हों, कि मार्जिन कितना रखा जाए, टाइप कैसे किया जाए वगैरह वगैरह. रेलवे गाइड से ऊपर कोई भी किताब सौंदर्यपरक विचारों से पूरी तरह से मुक्त नहीं कही जा सकती.
(iii)ऐतिहासिक आवेश - चीजों को वैसे ही देखना, जैसी वे हैं, सही तथ्यों की खोज करना और उन्हें वाली पीढ़ियों के इस्तेमाल के लिए सहेज कर रखना.
(iv) राजनीतिक उद्देश्य - ‘राजनीतिक’ शब्द का जितना अधिक हो सके, व्यापक अर्थ में इस्तेमाल. दुनिया को किसी खास दिशा में धकेलने की चाहत, दूसरे लोगों की उस सोच को बदलना कि वे किस तरह के समाज में रहने की चाहत पालें. एक बार फिर इस बात पर ज़ोर दे रहा हूं कि कोई भी किताब वास्तव में राजनैतिक झुकाव से परे नहीं रह सकती. यह राय कि कला को राजनीति के साथ कुछ भी करना धरना नहीं होता, अपने आपमें एक राजनैतिक नज़रिया है.
यह देखा जा सकता है कि किस तरह से अलग-अलग धारणाएं एक दूसरे के खिलाफ काम करती हैं और अलग अलग समय पर और एक आदमी से दूसरे आदमी के बीच कैसे ऊपर नीचे होती रहती हैं.
प्रकृति के द्वारा - अपनी प्रकृति को ऐसी स्थिति में लेना जबकि आप पहली बार जब वयस्क हुए थे - तो यह सोचना कि मैं वह व्यक्ति हूं जिसके साथ पहले तीन लक्ष्य चौथे पर भारी पड़ेंगे. हो सकता है कि शांति के समय में मैंने ऐसी किताबें लिखी हों जो देखने में अच्छी हों या खाली विवरणात्मक किताबें लिखी हों और हो सकता है कि मैं अपनी राजनैतिक निष्ठाओं के प्रति बिल्कुल भी अनभिज्ञ रहा होऊं. और जैसा कि हुआ, मैं एक तरह से पर्चेबाजी वाला लेखक बनने के लिए विवश कर दिया गया होऊं.
पहले मैंने पांच बरस एक ऐसे नामुनासिब, अननुकूल धंधे में गंवा दिए (बर्मा में भारतीय राजसी पुलिस) और उसके बाद तो मैं गरीब हो गया और असफलता की गर्त में गिरता चला गया. इसने सत्ता के खिलाफ मेरी प्राकृतिक नफरत को हवा दे दी और पहली बार मुझे कामगार वर्ग के अस्तित्व के बारे में पूरी तरह से जानकारी हासिल हुई. बर्मा में नौकरी करते हुए मुझे कुछ हद तक राजसत्ता की प्रकृति के बारे में थोड़ा बहुत अंदाजा लगा था.
लेकिन ये अनुभव इतने काफी नहीं थे जो मेरी सही राजनैतिक समझ को दिशा देते. उसके बाद हिटलर का आगमन, स्पेनिश गृह युद्ध वगैरा-वगैरा. 1935 के अंत के आते आते भी मैं कोई निर्णायक फैसला लेने में खुद को असमर्थ पा रहा था. मुझे याद है कि उस समय मैंने एक छोटी सी कविता लिखी थी और जिसमें मैंने अपनी दुविधा को व्यक्त किया था:
1936-37 में स्पेन के युद्ध और दूसरी घटनाओं ने सारे परिदृश्य को बदल दिया
1936-37 में स्पेन के युद्ध और दूसरी घटनाओं ने सारे परिदृश्य को बदल दिया और उसके बाद मुझे पता चल चुका था कि मैं कहां खड़ा हूं. 1936 के बाद से जो कुछ भी गंभीरता पूर्वक लेखन मैंने किया है, वह सीधे ही या अप्रत्यक्ष रूप से सर्व सत्तावाद के खिलाफ और लोकतांत्रिक समाजवाद के पक्ष में, जैसे कि मैं उसे समझ पाया हूं, लिखा गया है. यह सोचना भी मुझे वाहियात लगता है कि जिस वक्त से हम गुजर रहे थे, कोई व्यक्ति इस तरह के विषयों पर लिखने से बच सकता है. हर लेखक एक या दूसरी आड़ के पीछे छुप कर इनके बारे में लिखता ही है. यह एक मामूली सा सवाल है कि वह किसकी तरफदारी करता है और वह कौन सा नजरिया अपनाता है. जो व्यक्ति अपने राजनैतिक रुझान के प्रति जितना अधिक जागरूक होगा, उतना ही अधिक उसके सामने ये मौके होंगे कि वह अपनी सौंदर्यवादी और बौद्धिक ईमानदारी को त्यागे बिना राजनीतिक रूप से काम कर सके.
पिछले 10 बरसों के दौरान मैं लगातार इस बात को शिद्दत से चाहता रहा कि राजनीतिक लेखन को एक कला के रूप में सामने रखूं. मेरा शुरुआती बिंदु हमेशा मेरा भागीदारी का अहसास, अन्याय की भावना रहा है. मैं जब कोई किताब लिखने के लिए बैठता हूं तो मैं अपने आपसे यह नहीं कहता कि मैं यह इसलिए लिख रहा हूं कि मैं कोई कला का काम करने जा रहा हूं. मैं इसलिए लिख रहा हूं कि कुछ तो ऐसा झूठ है जो मैं सामने लाना चाहता हूं. कुछ ऐसे तथ्य हैं जिनकी ओर मैं दूसरों का ध्यान दिलाना चाहता हूं और मेरी शुरुआती चिंता यही है कि उन्हें सुना जाए.
लेकिन अगर ये सब एक सौंदर्यपरक अनुभव भी पाने के लिए न होता, तो मैं कोई किताब लिखने का या किसी पत्रिका के लिए कोई लंबा आलेख लिखने का काम कर ही नहीं सकता था. कोई भी व्यक्ति जो मेरे काम को देखना चाहता है यह पाएगा कि यह बेशक पूरी तरह से प्रचार सामग्री है, फिर मैं इसमें कुछ ऐसा है कि जिसे कोई पूर्णकालिक राजनीतिज्ञ भी अप्रासंगिक मानेगा. मैं इस योग्य नहीं और न ही मैं चाहता हूं कि दुनियावी नज़रिए को पूरी तरह से छोड़ दूं जो मैंने बचपन में हासिल किया था. जब तक मैं जीवित हूं और स्वस्थ हूं, मैं अपनी गद्य की शैली के बारे में सोचता रहूंगा, मैं धरती की सतह को प्यार करता रहूंगा और ठोस वस्तुओं को सामने लाने में बेकार की जानकारी को परे करने में खुशी महसूस करता रहूंगा.
अपने इस पक्ष को दबाने की कोशिश करने का कोई मतलब नहीं है. मेरा काम है कि मैं अनिवार्य रूप से सार्वजनिक, अ-व्यक्तिगत ऐसी गतिविधियों की अपने भीतर की सहज पसंदगियों और नापसंदगियों के साथ सामंजस्य स्थापित करूं जो हमारे काल खंड ने हम सब पर थोप दी हैं.
ये कर पाना आसान नहीं होता. यह बनावट की और भाषा की समस्याएं सामने रखता है और यह नये तरीके से सच्चाई की समस्या को सामने लाता है. मैं आपको सिर्फ एक ऐसी कठोर किस्म की कठिनाई से वाकिफ कराना चाहूंगा जो सामने आती है. स्पेनिश गृह युद्ध के बारे में मेरी किताब होमेज टू कैटालोनिया बेशक स्पष्ट रूप से एक राजनैतिक किताब है लेकिन यह मुख्य रूप से कुछ हद तक नि:संग भाव से और शैली की परवाह किये बगैर लिखी गयी है. मैंने अपनी राजनैतिक सूझबूझ की बलि दिये बिना पूरे सच को दुनिया के सामने रखने की पुरज़ोर कोशिश की है.
लेकिन इसमें आयी दूसरी बातों के अलावा एक लंबा अध्याय शामिल किया गया है जिसमें ढेर सारे अखबारी उद्धरण और इस तरह की बातें दी गयी हैं और उनके ज़रिये ट्रोट्स्कियों का बचाव करने की कोशिश की गयी है. उन पर जनरल फ्रांकों के साथ मिल कर षड्यंत्र रचने का आरोप लगाया गया था.
ये स्पष्ट है कि इस तरह का अध्याय जो एक या दो बरस बीत जाने के बाद किसी भी साधारण पाठक के लिए अपनी दिलचस्पी खो देगा, किसी किताब को बरबाद कर देने के लिए काफी है. एक आलोचक जिनका मैं सम्मान करता हूं, ने मुझे एक भाषण पिलाया कि तुमने ये सारी चीजें किताब में क्यों डाली हैं. उनका कहना था कि तुमने एक अच्छी खासी बन सकने वाली किताब को पत्रकारिता में बदल दिया है. उन्होंने जो कुछ भी कहा था, वह सच था लेकिन मैं इसके अलावा कुछ कर भी नहीं सकता था. मुझे ऐसी बहुत सारी बातें पता थीं जिनके बारे में इंग्लैंड में बहुत कम लोगों को जानने की अनुमति दी गयी थी कि निर्दोष लोगों को झूठे तरीके से फंसाया जा रहा था. अगर मैं इन बातों को ले कर खफ़ा न होता तो मैं ये किताब कभी लिख ही न पाता.
यह समस्या किसी न किसी रूप में दोबारा सामने आती ही है. भाषा की समस्या जटिल है और इस पर चर्चा करने में बहुत समय लगेगा. मैं सिर्फ यही कहना चाहूंगा कि बाद के वर्षों में मैंने बढ़़ा चढ़ा कर लिखने के बजाये सही और तथ्यपरक लिखने की तरफ ज्यादा ध्यान दिया है.
जो भी हो, मुझे लगता है कि जब तक आप लिखने की एक खास शैली में निपुणता हासिल करते हैं, तब तक आप उससे आगे निकल चुके होते हैं.
एनिमल फॉर्म में मेरी पूरी चेतना थी
एनिमल फॉर्म एक ऐसी पहली किताब थी जिसमें मैंने अपनी पूरी चेतना के साथ कि मैं क्या कर रहा हूं, मैंने इस बात की कोशिश की थी कि राजनैतिक लक्ष्य को और कलात्मक लक्ष्य को एक समग्र रूप में मिला कर रखूं. मैंने सात बरस से कोई उपन्यास नहीं लिखा है लेकिन मुझे उम्मीद है कि मैं जल्दी दूसरी किताब लिखूंगा. यह तय है कि यह उपन्यास भी औंधे मुंह गिरेगा. हर किताब अपने आप में असफल होती है लेकिन मैं बहुत स्पष्टता से जानता हूं कि मैं किस तरह की किताबें लिखना चाहता हूं.
पिछले एक दो पन्ने मैं देखता हूं तो मुझे ऐसा लगता है कि मैंने इस बात की कोशिश की है कि ऐसा लगे, मेरे लिखने का मकसद पूरी तरह से जनता की चेतना से जुड़ा हुआ है. मैं इसे अंतिम छाप के रूप में नहीं छोड़ना चाहता. सारे के सारे लेखक बेकार, स्वार्थी और आलसी होते हैं और उनके मकसद में गहराई तक एक रहस्य छुपा होता है.
किताब लिखना एक भयानक, खाली कर देने वाला संघर्ष होता है, जैसे किसी दर्दनाक बीमारी से गुजरने की तरह. कोई भी व्यक्ति ऐसा कोई भी काम नहीं करेगा अगर उसके भीतर कोई ऐसी दानवी शक्ति काम न कर रही हो, जिसे न तो वह रोक पा रहा हो और न ही समझ पा रहा हो.
वह सिर्फ यही जानता है कि यह दानवी शक्ति वही सहज बुद्धि है जो एक रोता हुआ बच्चा ध्यान आकर्षित करने के लिए इस्तेमाल करता है. और इसके बावजूद इस बात में भी सच्चाई है कि कोई भी व्यक्ति तब तक ऐसा कुछ भी पठनीय नहीं लिख सकता जब तक वह अपने खुद के व्यक्तित्व को मटियामेट करने के लिए लगातार संघर्ष न करे.
एक अच्छा गद्य खिड़की के शीशे की तरह होता है. मैं निश्चित तौर पर यह नहीं कह सकता कि मेरे लिखने के कौन से मकसद सबसे ज्यादा मज़बूत हैं लेकिन मैं इस बात को जानता हूं कि उनमें से कौन से अपनाये जा सकते हैं. जब मैं मुड़ कर अपने किए गए काम को देखता हूं तो मुझे लगता है कि निश्चित रूप से कहां मुझसे राजनीतिक उद्देश्य में चूक हुई है कि मैं बेजान किताबें लिखता रहा हूं और सनसनीखेज पैराग्राफ लिखता रहा, ऐसे वाक्य लिखे जिनका कोई अर्थ ना हो, आकर्षक विशेषण लगाता रहा और आमतौर पर पसंद आने वाक्य लिखने की धोखेबाजी करता रहा.
(सूरज प्रकाश हिंदी के वरिष्ठ कथाकार हैं. यहां उनके द्वारा अनूदित प्रसिद्ध लेखक जॉर्ज ऑरवेल का एक आलेख प्रस्तुत है. )
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