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लाइफस्टाइल
World Earth Day के अवसर पर पढ़िए वरिष्ठ लेखिका चंद्रकला त्रिपाठी का यह आलेख जो लोकगीतों में पक्षियों के होने की विवेचना कर रहा है
एक विवाह गीत में राम की सजी हुई बारात बस जनकपुर को प्रस्थान करने ही वाली है , रुनझुन वाद्य बज रहे हैं कि सुआ ऊपर मंडराने लगता है.कहता है कि ' मैं भी ब्याहने चलूंगा
राम जे चले हैं बियाहन रुने झुने बाजन
ऊपरां सुगन मडराला हमहुं चलबै बियहन
ऐसे ही कितने जीवन प्रसंग हैं , लोकगीतों में ही नहीं समूची क्लासिक परंपरा में और दर्शन में भी जब ये पक्षी कई कई रुप धर कर उस चिंतन और कला में अन्यतम प्रतीति भर देते हैं. दार्शनिकों ने इनमें गहरी तटस्थता से संसार को परखना लक्ष्य किया है तो कवियों ने अपनी निर्मितियों में मानवीय लास्य और संपूर्णता रचने के लिए इन्हें चुना है. दुनिया के समस्त लोकगीतों में इनकी मौजूदगी यह सब कुछ हो कर है. ये तटस्थ द्रष्टा हैं तो शामिल किरदार भी हैं.रुपक हैं तो आलंबन उद्दीपन भी हैं.संगी हैं ,टोही हैं और शिक्षक भी हैं. जहां कहीं रचने में परंपरा का सुंदरतम शामिल है वहां पक्षी जगत के इस वैभव का ललित शामिल है . अभी एक युवा लेखिका अनुकृति उपाध्याय की बेजोड़ कहानी पढ़ी -' जानकी और चमगादड़ '. वाह , क्या कहानी है. मधुर मानवीय जीवन के संसर्ग की कथा.अकृतिम और प्रकृत. कहना यह चाहती हूं कि संसार इस तरह के विविध जीव जीवन से संलिप्त भाव में होकर घुल कर अधिक सुंदर है.इस अनुभव के कुछ रुपों की खोज में फिलहाल अवधी भोजपुरी में व्यक्त पक्षियों के संदर्भों को देखना तय किया है.
चकवा और चकवी महाकाव्यों से लेकर लोकगीतों तक चित्रित हैं
चकवा और चकवी महाकाव्यों से लेकर लोकगीतों तक घोर अनुरक्त प्रणयी रुप में चित्रित हैं. अभिज्ञान शाकुन्तलम , जिसका बहुत ही ललित अनुवाद किया है आदरणीय राधावल्लभ त्रिपाठी जी ने , में इस पक्षी युगल का एक संदर्भ आया है जिसमें उनकी आकुल प्रेम केलि की संकल्पना है.प्रसंग यह है कि शकुंतला दुष्यंत के पास जा रही है.कण्व ऋषि पिता की तरह कन्या को पति गृह भेज रहे हैं.प्रिय के पास चल पड़ी शकुंतला अनसूया से कहती है - सखि ! देख तो . चकवा कमल के पत्ते से छिप गया उसी में यह चकई कैसे आतुर हो कर चिल्ला उठी है. फिर मेरे लिए कितना कठिन है यह सब झेलना -
अनसूया कहती है - वह भी प्रियतम के बिन लंबी काली रात बिताती है.
दारुण विरह का दुस्सह दुख भी आशा सह्य बनाती है '
यह विरह कवि कल्पित ही है. रामकथा पर आधारित एक सोहर में चकवा चकवी के रात्रि अलगाव को एक शाप का नतीजा कहा गया है . गीत में राम के वन गमन के बाद व्याकुल हुई कौशल्या उन्हें वापस अयोध्या लौटा लाने के लिए निकल पड़ी हैं .वे कठिन दुख में तो हैं ही साथ ही कैकेई ने ताना भी मार दिया है कि जिसके राम वन चले गए उसे भला नींद कैसे आ रही है.
कौशल्या राह में सबसे पूछती जा रही हैं कि मेरे राम क्या इधर से ही गुजरे हैं.
वे चकवी से भी पूछती हैं
हे तुम डार के चकवी अरे अपने चकइया संग हो
एहि बाटे राम मोर गइलें कतहुं तुहूं देखेऊ हो
चकवी कहती है - हां हम बाट के चकवी अरे अपने चकइया संग हो
एहि बाटे राम तोर गइनै त हम नाहीं देखेंऊं हो
कौशल्या कुपित होती हैं.समझ जाती हैं कि आपस में डूबे हुए ये दोनों दीन दुनिया से बेखबर हैं.शोक से भरी वे शाप दे देती हैं. कहती हैं
हे तुम डाल के चकवा अरे अपने चकइया संग हो
दिन भर रहू एक साथ त रात अलग होऊ हो
एक गीत में रुक्मिणी के विरह की आंच चकवी के कलेजे तक पहुंचती है
एक गीत में रुक्मिणी के विरह की आंच चकवी के कलेजे तक पहुंचती है. यह अनोखा तादात्म्य है वाक़ई -
चकई पुकारै सुनु चकवा भोर कब होइही सुरुज कब निकसइ
रुकुमिनि हरि परदेस लउटि कब अइहइं हो
यही चकवी एक अन्य गीत में रुक्मिणी को ही क्या सीधा जवाब देती है.वह विरह प्रतीति में तो रुक्मिणी के दुख के साथ है मगर केलि क्रीड़ा में लगी रुक्मिणी के गुहार का बड़ा बेलाग उत्तर देती है.
प्रसंग यह है कि , गहरे पानी वाली यमुना के जल पर छाई कदंब डाल पर हिंडोला पड़ा है और रुक्मिणी उस पर झूल रहीं हैं. शाम गहरा आई है. झूलते झूलते औचक उनका मोतियों का हार टूट कर यमुना में गिर जाता है. मोती नदी के पानी में डूब जाते हैं. रुक्मिणी तब चकई को पुकार कर कहती हैं कि-
धावहु बहिनी चकइया तू हाली बेग धावहु हो
चकई चुनि लेहु मोतियन हार जमुन जल भीतर हो
चकई के लिए सांझ का अर्थ है वियोग का घहराया समय. गुस्से में आ जाती है वह और कहती है-
आगिया लगाऊं तोर हरवा बज्जर परै मोतियाहु हो
संझवै से चकवा हेरान ढ़ूढ़त नाहीं पावहुं हो
इस तरह पक्षियों के इस संसार में मनुष्य के लिए अविरल नेह छोह और चिंता और नालिश भी
बसी हुई दिखाई देती है.लोकाख्यानों में इस रुढ़ि के उपयोग से बड़ी सुंदरता आई है. तुलसी जायसी जैसे बड़े कवियों ने इतना सम्मोहक समावेश किया है कि क्या कहा जाए.मानस में तो पक्षियों का अपना किरदार ही अवतरित है. पद्मावत में भी.
कैसे एक कवि रुढ़ि लोकविधाओं तक यात्रा करती है. नागार्जुन ने भी बादल को घिरते देखा है ' शीर्षक कविता में इस पक्षी के विरह मिलन की बेचैनियों को लिखा है.
अनेक ऐसे प्रसंग होंगे.समझ में तो यह भी आता है कि कलाओं ने प्रकृति को कैसी मानवीय निकटता में रचा है जिसमें मनुष्य का जीवन व्यापार संगी होकर शामिल है. एक विस्तृत बहुरंगी संसार अपनी गतियों समेत व्यक्त हो उठता है. निसर्ग के अछूते संदर्भ हमारे जीवन को सुंदरतम बना जाते हैं. कल्पना उर्वर होकर पत्तों का डोलना भर नहीं सुनती बल्कि ध्वनियों को भी सुनती है. एक लय है यह.सबकी अपनी लय जिसमें कायनात की महालय का स्फुरण है. तमाम वन प्रांतर की सघनता उससे गुजरती कोई राह और उस पर चलता हुआ बटोही कभी अकेला नहीं है.उस प्रकृति के अनेक संगी अपनी ध्वनि से हलचल से और स्पर्श से उसके साथ चलते हैं.
लोकगीत में आशीर्वाद में भी प्रकृति है
लोकगीतों में आई असीस भी सुनिए उसमें वनस्पतियों फूलों फलों की तरह विलसने का वर मिलता है.हालरि दूब की तरह जीने की दुआ मिलती है.कृषि अनुभवों वाले मनुष्य को साठी के चावल का बचे रहने का गुर पता है. यह सब लोकस्मृति है जो लोकसाहित्य में भरी हुई है. यहां जीने का इकहरा ढ़ंग नहीं है बल्कि ऐसे कुरसजीवन की आलोचना है.
ससुराल के अमानुषिक व्यवहार से दुखी बेटी कहती है - पिता जिस वन में दूब नहीं उगती थी , कोयल भी नहीं बोलती थी उस घर वन में मेरे लिए क्यों ठिकाना खोजा.
स्त्री जीवन के रंगों के समूचे आख्यान में पक्षी अधिकतर मुक्ति की आकांक्षा हैं. एक गीत है गवने का , सुनिए -
सुतली कोयलर देइ के सुअना जगावे ल
चलि चल हमरहिं देस हो
बाबा क कोरवां छोड़ि दा
मयरिया गोदिया छोड़ि दा
इसका जवाब देती है कोयल.पूछती है कि-
का हो खियइबा सुगना का हो पिअइबा हो
कहवां सोअइबा सारी रैना .....
सुगना कहता है - दूधवा पिअइबै कोइलरि भतवा खिअइबै हो
कोरवां सोअइबै सारी रैन.....
कोयल कहती है कि उसके पिता के आंगन में आम का पेड़ है.उससे उड़ कर वह आकाश छू लेती है. जवाब देखिएगा तो पूरी पितृसत्ता की चौकस संरचना बोलती मिलेगी.
सुगना भी कहता है कि उसके आंगन में तो इमली और अनार भी है.कहता है-
अमवा कुपुटिहा कोइलर इमिली कुपुटिहा हो ,झोपसन चीखीहा अनार हो
और उड़ कर आकाश छूने का प्रसंग यहां अनुपस्थित मिलता है.
कोयल की मौजूदगी के अनेक प्रसंग हैं.अनेक बार यह विरह की आग बढ़ा देने वाली है.कागा जहां शुभ संदेश ले कर आता है वहीं बैरिन कोयलिया जैसे बदला लेने के लिए बोलती है.वह विरहिणी को खोज खोज कर बोलती है.
एक गीत में आए संदर्भ में कोयल है. पत्नी दोपहर भोजन के लिए प्रिय का इंतज़ार कर रही है.वह आता है तो विलंब का कारण पूछती है.पति कहता है कि बाबा की लगाई अमराई में कोयल इतना सुंदर बोल रही थी कि उसे सुनते हुए सब भूल गया. स्त्री अपना मान कोयल पर निकालती है. उलाहना देती है कि क्या तुम थोड़ी देर के लिए अपनी कूक रोक नहीं सकती थी. स्त्री उसे यह ख़त में लिख कर भेजती है.कोयल भी जवाबी चिट्ठी में लिखती है -
ऐसेहि बोलिया तू बोल मोरी तिरिया पियवा के लेहु बेलमाय
देखिए ,कोयल का तपाक तो देखिए.
Sublime Prose : नूर नहाए रेशम का झूला है शहतूत
चिड़िया है सलाहकार
चिट्ठियों के मोहक आदान प्रदान के कई कई प्रकरण लोकगीतों में मिलते हैं. उससे जुड़ी भावनाएं बड़ी तीव्रतम हैं. ज़्यादातर ये विरह संबंधी ही हैं. एक गीत है जिसमें परदेस गए व्यापारी पति के पास स्त्री चिड़िया से संदेश पठाना चाहती .याद कीजिए जायसी को सूर को. जायसी ने नागमती के विरह में जैसे अपने कलेजे का रक्त मिला दिया था.पूरी प्रकृति में वह विरह धम धम बज रहा था जैसे और नागमती भी अपनी व्यथा कहने के लिए काग को और भंवरे को चुनती है -
पिउ सो कहेहु संदेसड़ा , हे भंवरा ! हे काग !.
सो धनि बिरहै जरि मुई , तेहिक धुआं हम्ह लाग..
इसी तरह वह स्त्री भी अपने बनिज पति के पास विरह पाती चिड़िया से भेजना चाहती है.
चिड़िया की बुद्धिमत्ता देखिए कि वह पूछती है कि मैं तुम्हारे पति को पहचानूंगी कैसे भला.तो वह अपने पति की कद काठी रुप रंग ही नहीं वर्दी का रंग भी बताती है और चिड़िया चिट्ठी लेकर वहां पहुंच जाती है.चिट्ठी को कलेजे से लगा कर आंसुओं में डूबा हुआ पति इस मोही चिड़िया को अपना दुःख बता जाता है कि मेरी प्रिया ने आम और इमली ले कर आने के लिए कहा है. वर्दी बेंच भी दूं तो इस भांदो में आम इमली कहां पाऊं मैं.उधर सास खिन्न है कि बेटा अपनी तिरिया का दास हो गया है. भला कैसे पाएगा आम और इमली.
ख़ैर पति लौट आता है. एक बड़ी ही सुंदर कथा है इस गीत में. एक कुटुम्ब का चित्रण तो है ही स्त्री की उन्मुक्त स्थिति भी है वहां. पारिवारिकता का रंग भी है.
इस तरह तमाम लोकगीत हंस मयूर गौरैया जैसी पक्षियों की अनेक प्रजातियों के उल्लेख से भरे हुए हैं.सुआ सुगना तो एक बड़ी प्रिय उपस्थिति ही है.कागा का भी क्या कहना. भंवरा तो कालिदास के यहां ही रसमाते रुप में आ गया है.कुंज निकुंज अमराई ही नहीं छान छप्पर पर इनकी सरस मौजूदगी ने जीवन की संपूर्णता को रचा है.इस पर वे ही रीझेगें जिनके ह्रदय में जीवन राग भरा होगा.
न्यास को पाठ्यक्रम में पढ़ते थे.
(चंद्रकला त्रिपाठी काशी हिंदू विश्वविद्यालय के महिला महाविद्यालय की पूर्व प्राचार्य रह चुकी हैं. साथ ही वरिष्ठ लेखिका हैं. )