भारत
स्त्रियों की मुक्ति में साइकिल का अहम योगदान रहा है. पढ़ें साइकिल की यात्रा पर मनीष कौषल का आलेख.
डीएनए हिंदी: कोरोना वायरस महामारी के दौरान लगे लॉकडाउन में 13 वर्षीय ज्योति पासवान की गुरुग्राम से दरभंगा तक साइकिल पर की गई साहसिक यात्रा ने उसे 'साइकिल गर्ल' का खिताब दिलवा दिया. एक दुर्घटना में जख्मी अपने पिता को वे गुरुग्राम से साइकिल पर बिठा कर बड़े हौसले से दरभंगा के सिंहवाड़ा स्थित अपने गांव सिरहुल्ली ले गईं थीं. 2006 में नीतीश कुमार ने 'मुख्यमंत्री साइकिल योजना' की शुरुआत की थी. ज्योति की बड़ी बहन पिंकी देवी को भी साइकिल मिली थी. उसी साइकिल से ज्योति ने साइकिल चलाना सीखा था.
अगर उन्हें साइकिल का सहारा न मिला होता तो लॉकडाउन की त्रासदी में अपने घायल पिता को वे गुरुग्राम से दरभंगा तक के लगभग 1200 किलोमीटर लंबे सफर पर ले चलने का साहस न दिखा पातीं और न ही महिलाओं की उस शक्ति का प्रतीक बन पातीं जिससे आज लाखों लड़कियां प्रेरणा पा रहीं हैं.
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19वीं सदी की प्रमुख महिला अधिकारवादियों में एक सूजन बी एंथनी ने एक बार कहा था, "मैं आपको साइकिल चलाने के बारे में अपनी सोच से वाकिफ़ कराना चाहती हूं. मैं सोचती हूं कि स्त्रियों को बंधन मुक्त करने में जितना योगदान इसने दिया है, उतना शायद ही दुनिया में किसी ने दिया है." इसमें शक नहीं है कि 19वीं सदी में महिला सशक्तिकरण में जितना योगदान जेन एडम्स, सूजन बी एंथनी और सोजर्नर ट्रुथ जैसी महिला अधिकारवादियों का है, अगर उससे ज़्यादा नहीं तो तकरीबन उतना ही योगदान साइकिल का भी है.
3 जून : विश्व साइकिल दिवस
3 जून 2018. न्यू यॉर्क में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने इस दिन को पहली बार आधिकारिक तौर पर 'विश्व साइकिल दिवस' के तौर पर मनाया. दैनिक जीवन में साइकिल को लोकप्रिय बनाना इसका उद्देश्य है क्योंकि ये सफर के सबसे फ़ायदेमंद संसाधनों में एक है. मानव श्रम से चलने वाली साइकिल के लिए तेल या किसी अन्य तरह के ईंधन की जरूरत नहीं होती. इससे कार्बन उत्सर्जन नहीं होता और ये पर्यावरण को किसी तरह का नुकसान नहीं पहुंचाती. साइकिल चलाने वाले को स्वस्थ रखने में भी इसका बड़ा योगदान है. इन सबसे बढ़ कर मानव इतिहास में साइकिल ने जो योगदान महिला सशक्तिकरण में दिया है, उसे भुलाना असंभव है.
साइकिल: बदलते-बदलते बनी पसंद की सवारी
हालांकि यह अचानक नहीं हुआ और साइकिल तक महिलाओं की पहुंच बनने में कई बरस लगे. 1890 से पहले साइकिल, आज से बहुत ही अलग किस्म की सवारी थी. 1860 से 1880 तक एक आम साइकिल का अगला पहिया काफी ऊंचा और पिछला पहिया बहुत छोटा होता था. उसे चलाना आसान नहीं होता था और वो खतरनाक भी थी. महिलाओं के लिए उस साइकिल की सवारी करने की बात सोची भी नहीं जा सकती थी. उस दौर में साइकिल की पहचान मर्दों के वाहन के तौर पर थी. साइकिल के बदलते रूपों के बीच महिलाओं ने पीछे की सीट पर दोनों टांगों को एक तरफ कर साइकिल पर सहयात्री के तौर पर बैठना शुरू किया जो महिला-सुलभ नज़ाकत और उनके लिए सामाजिक तौर पर स्वीकार्य तरीका था. शायद ही किसी को इस पर आपत्ति रही हो.
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बाद के दौर में जैसे-जैसे साइकिल की तकनीक में सुधार होता गया, हालात बदलने लगे. इस सिलसिले में एक बड़ा बदलाव 1885 में हुआ जब जॉन केम्प स्टार्लि ने उस वक्त की बेडौल दिखने वाली असंतुलित साइकिल की डिजाइन से जुड़ी, एक बड़ी समस्या का निदान खोज लिया. स्टार्लि ने साइकिल के दोनों पहियों को 26 इंच का कर उन्हें एक ही आकार का कर दिया. दोनों पहियों को एक साथ चलाने के लिए उन्होंने साइकिल में एक चेन लगा दिया. इस नई तरह की साइकिल को 'सेफ्टी साइकिल' कहा जाने लगा जिसे बनाने की लागत भी कम हो गई. इन बदलाव के आते ही साइकिल के एक लोकप्रिय सवारी में बदलते देर नहीं लगी. अकेले 1897 में ही अमेरिका में 20 लाख से ज्यादा साइकिलों की बिक्री हुई.
साइकिल: नए जमाने का नया फैशन
साइकिल की सवारी लोकप्रिय तो हो गई लेकिन महिलाओं के लिए इसे चलाने में अभी भी समस्या थी. उस वक्त के विक्टोरियन दौर में महिलाएं भारी-भरकम 'हूप स्कर्ट' पहना करतीं थीं जिन्हें पहन कर साइकिल चलाना बहुत ही कष्ट-साध्य था. लिहाजा, धीरे-धीरे महिलाओं ने 'ब्लूमर्स' कहे जाने वाले बैगी अंडरगार्मेंट्स को पहनना शुरू कर दिया जो ढीले-ढीले बैग जैसे दिखने वाले लंबे पैंट थे. ये पैंट महिलाओं की एड़ियों के पास कस जाते थे जिनसे उनकी एड़ियां दिखाईं देती थीं. बाद में जैसे-जैसे साइकिल महिलाओं के बीच लोकप्रिय होती गई, इस पोशाक में और बदलाव होते गए.
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हालांकि हर कोई इस बदलाव से खुश नहीं था. मर्दवादी मानसिकता वाले कई पुरुषों की भृकुटियां तन चुकीं थीं जो स्कर्ट की बजाए महिलाओं के दो भागों वाली पैंट जैसी पोशाक को पहनने के खिलाफ थे. उस वक्त के कुछ डॉक्टरों ने भी महिलाओं के साइकिल चलाने की मुख़ालफ़त की. उन्होंने साइकिल की सवारी को महिलाओं की सेहत के लिए खराब बताना शुरू कर दिया. सबसे ज्यादा चिंता महिलाओं की कोमलता खत्म हो जाने की थी, इसके विरोध में बहुत सी महिलाओं ने ये कहना शुरू कर दिया कि साइकिल चलाने या न चलाने और स्कर्ट पहनने या ब्लूमर्स पहनने का फैसला महिलाओं पर ही छोड़ देना चाहिए.
साइकिल: एक शर्त से जल गई 'अकड़' की रस्सी
तबके मर्दवादी समाज में बहुत से लोगों को यह बदलाव अच्छा नहीं लग रहा था. बॉस्टन में रहने वाले दो व्यापारी भी ऐसे ही थे जिन्होंने 1894 में इस बात पर 10 हज़ार डॉलर की शर्त लगाई कि कोई भी औरत साइकिल पर दुनिया का सफर नहीं तय कर सकती. उनकी इस शर्त को एनी लंडनडेरी नाम की एक महिला ने चुनौती के तौर पर लिया, जिसने पहले कभी भी साइकिल की सवारी नहीं की थी.
1894 में एनी एक साइकिल पर सवार हो कर बॉस्टन से निकल पड़ी. शिकागो, न्यू यॉर्क, फ्रांस, अलेक्जेंड्रिया, कोलंबो, सिंगापुर, शंघाई होते हुए लगभग एक साल बात 1895 में वे लॉस एंजिलिस लौट आईं. अपनी इस यात्रा से वे रातों-रात सेलिब्रिटी और फेमिनिस्ट आंदोलन की प्रतीक बन गईं.
अब, महिलाएं एक ऐसी सवारी का स्वाद चख चुकीं थीं जिसने उन्हें पुरुषों पर निर्भरता से आजाद कराया. साइकिल चलाती महिला अकेली होती थी और वो ये फैसला कर सकती थी कि उसे कहां जाना है. शायद पहली बार ऐसा हो रहा था कि महिलाएं अपना रास्ता और अपना मुकाम खुद तय कर रहीं थीं.
ये बदलाव अमेरिका से लेकर यूरोप तक आ रहे थे जहां औद्योगिक क्रांति के बाद के माहौल में फैक्ट्रियों में काम करने के लिए महिलाओं की जरूरत भी लगातार बढ़ रही थी. महिलाओं ने अपनी बढ़ी हुई भूमिका के लिए साइकिल को खुले दिल से अपनाया. इससे उस वक्त के महिला अधिकार और सशक्तिकरण के आंदोलन को भी नई धार मिली.
साइकिल: महिला अधिकार से मताधिकार तक
'सेफ्टी साइकिल' के आने के महज पांच वर्षों बाद ही अमेरिका में 'नेशनल वूमेन सफ़रेज एसोसिएशन' का गठन हुआ जिसने महिलाओं के मताधिकार के लिए संघर्ष किया. इस आंदोलन को खड़ा करने वाली सूजन बी एंथनी और एलिजाबेथ कैडी स्टैनटॉन ने ये बयान दिया कि "महिलाएं, साइकिल पर सवारी कर मताधिकार हासिल करेंगी." उनकी ये भविष्यवाणी 1920 में सच हुई जब अमेरिका में महिलाओं को मत देने का अधिकार मिला.
साइकिल से आई महिलाओं की आजादी की ये कहानी आज भी जारी है. अफ्रीका से लेकर एशिया तक साइकिल पर सवार महिलाएं अपने अधिकारों और आर्थिक आजादी के लिए लगातार संघर्षरत हैं. खासकर, लड़कियों की शिक्षा में साइकिल का योगदान को कतई नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. जाम्बिया से लेकर नेपाल तक साइकिल पर सवार लड़कियां, स्कूली शिक्षा के रास्ते पर लगातार आगे बढ़ रहीं हैं जो एक नई क्रांति की दस्तक है.
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