भारत
ध्यान देने वाली बात ये कि केंद्र की मोदी सरकार हिन्दी के साथ जो करना चाहती है, अंबेडकर भी कुछ वैसा ही चाहते थे.
श्वेता
केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह का हिंदी को लेकर दिया गया हालिया बयान एक बार फिर स्टेट एंड लैंग्वेज के बहस को तेज कर चुका है. नई दिल्ली में 7 अप्रैल को संसदीय राजभाषा समिति की 37वीं बैठक की अध्यक्षता करते हुए श्री शाह ने कहा कि हिंदी की स्वीकार्यता स्थानीय भाषाओं के तौर पर नहीं, बल्कि अंग्रेजी के विकल्प के रूप में होनी चाहिए.
अमित शाह ने सदस्यों को बताया कि मंत्रिमंडल का 70 प्रतिशत एजेंडा अब हिंदी में तैयार किया जाता है. वक्त आ गया है कि राजभाषा हिंदी को देश की एकता का महत्वपूर्ण हिस्सा बनाया जाए.
शाह के इस बयान के बाद देश में एक बार फिर से हिंदी भाषा को लेकर बहस छिड़ गई है. कांग्रेस ने भाजपा पर सांस्कृतिक आतंकवाद का आरोप लगाया है. वहीं टीएमसी, डीएमके, शिवसेना समेत अन्य कई विपक्षी दलों ने भी हिन्दी थोपने का आरोप लगाते हुए शाह के बयान का विरोध किया है.
सत्ता और विपक्ष के तर्कों के बीच उस महापुरुष के मत की जरूरत महसूस हो रही है जिन्हें आज-कल सभी दल अपना बताने का प्रयास कर रहे हैं. जी हाँ, इस लेख के माध्यम से हम यहीं जानने की कोशिश करेंगे कि हिंदी को लेकर संविधान निर्माता डॉ भीमराव अंबेडकर के क्या विचार थे.
‘एक राज्य, एक भाषा’ बनाम ‘एक भाषा, एक राज्य’
जैसा कि हम जानते हैं कि डॉ अंबेडकर अपने समकालीन राजनीतिज्ञों की तुलना में अधिक दूरदर्शी विद्वान थे. जब भारत के शीर्षस्थ नेतागण भाषावाद को लेकर भड़की हिंसा के सामने घुटने टेकने की सोच रहे थे, देश को त्रिभाषी सूत्र में पिरोने पर विचार कर रहे थे. तब भी अंबेडकर इसका समाधान ‘निर्मम तर्कणा’ से करने के पक्षधर थे.
डॉ अंबेडकर बहुभाषी राज्य के समर्थक नहीं थे. भाषावाद की सीमितता को समझाते हुए अंबेडकर लिखते हैं, ‘‘ ‘एक राज्य, एक भाषा’ लगभग हरेक राज्य का एक सार्वभौम लक्षण होता है. जर्मनी के संविधान की जांच कीजिए, फ्रांस का संविधान जांचिए, इटली के संविधान की परीक्षा कीजिए, इंग्लैंड का संविधान देखिए और संयुक्त राज्य अमेरिका का संविधान देखिए.
‘एक राज्य, एक भाषा’ यही नियम है. जहां कहीं भी इस नियम से विचलन हुआ है, वहीं राज्य के लिए खतरा पैदा हो गया है. मिश्रित भाषावार राज्यों के उदाहरण प्राचीन आस्ट्रियन साम्राज्य और प्राचीन तुर्की साम्राज्य में मौजूद हैं. वे इसलिए नष्ट हो गए, क्योंकि वे बहुभाषी राज्य थे और बहुभाषी राज्य के सभी गुणावगुण उनमें विद्यमान थे.’’ अंबेडकर चेतावनी देते हुए आगे कहते हैं भारत का भी यही हश्र होगा, अगर यह मिश्रित राज्यों का समूह बना रहा.
‘एक राज्य, एक भाषा’ के नियम को जातीय और सांस्कृतिक विरोध का एक मात्र समाधान बताने वाले अंबेडकर का मानना था कि मिश्रित भाषायी देश में लोकतंत्र सफलता पूर्वक चल ही नहीं सकता. भारत-पाकिस्तान विभाजन का उदाहरण देते हुए अंबेडकर लिखते हैं, ‘‘मिश्रित राज्य के रूप में संयुक्त भारत का गठन और भारत का भारत और पाकिस्तान के रूप में अनिवार्य विभाजन मिश्रित राज्य में लोकतंत्र संभव न होने का अन्य दृष्टांत है.’’
हिन्दी से देश की अखंडता
हिन्दी को देश की अखंडता से जोड़ते हुए अंबेडकर कहते हैं, राज्य की राजभाषा हिन्दी रहेगी और जब तक भारत इस प्रयोजन के लिए योग्य न हो जाए, अंग्रेजी बनी रहेगी. क्या भारतवासी इसे स्वीकार करेंगे? यदि वे इसे स्वीकार नहीं करते तो भाषावार राज्य सहज ही देश के लिए खतरा बन जाएंगे.
‘एक राज्य, एक भाषा’ के नियम को हिन्दी से जोड़ते हुए अंबेडकर कड़ी टिप्पणी करते हैं. वो कहते हैं, ‘‘एक भाषा जनता को एक सूत्र में बांध सकती है. दो भाषाएं निश्चय ही जनता में फूट डाल देंगी. यह अटल नियम है. भाषा, संस्कृति की संजीवनी होती है.
चूंकि भारतवासी एकता चाहते हैं और एक समान संस्कृति विकसित करने के इच्छुक हैं, इसलिए सभी भारतीयों का यह कर्तव्य है कि वे हिन्दी अपनी भाषा के रूप में अपनाएं. कोई भी भारतीय, जो इस प्रस्ताव को भाषावार राज्य के अभिन्न अंग के रूप में स्वीकार नहीं करता, भारतीय कहलाने का अधिकारी नहीं हो सकता’’
अपनी इस टिप्पणी को विस्तार देते हुए अंबेडकर आगे कहते हैं, ‘‘हिंदी को न अपनाने वाला शत-प्रतिशत महाराष्ट्रीय, शत-प्रतिशत तमिल या शत-प्रतिशत गुजराती हो सकता है, किंतु वह सही अर्थ में भारतीय नहीं हो सकता, चाहे भौगोलिक अर्थ में भारतीय हो. यदि मेरा सुझाव स्वीकार नहीं किया जाता तो भारत, भारत कहलाने का पात्र नहीं रहेगा. वह विभिन्न जातियों का एक समूह बन जाएगा, जो एक दूसरे के विरूद्ध लड़ाई-झगड़े और प्रतिस्पर्धा में रत रहेगा’’
अंबेडकर भारत में पैदा होने वाली अलगाववादी भाषाई राजनीति को पहले ही समझ चुके थे
दरअसल अंबेडकर भारत में पैदा होने वाली अलगाववादी भाषाई राजनीतिक को पहले ही भाप चुके थे लेकिन कांग्रेस ने भाषावाद और प्रांतवाद के सामने झुकना चुना. अगर देश पहले ही अंबेडकर के सुझाव को स्वीकार कर लेता तो भारत आज संघात्मक रूप से अधिक मजबूत होता. साथ ही कालांतर में हुए भाषाई अलगाववाद और दंगे का भी साक्षी न बनता.
ध्यान देने वाली बात ये कि केंद्र की मोदी सरकार हिन्दी के साथ जो करना चाहती है, अंबेडकर भी कुछ वैसा ही चाहते थे. साल 2019 में 14 सितंबर यानी हिंदी दिवस की सुबह गृह मंत्री अमित शाह ने एक ट्वीट किया था जो भाजपा की बातों को अधिक स्पष्ट करता है. अमित शाह ने लिखा था, "भारत विभिन्न भाषाओं का देश है और हर भाषा का अपना महत्व है परन्तु पूरे देश की एक भाषा होना अत्यंत आवश्यक है जो विश्व में भारत की पहचान बने. आज देश को एकता की डोर में बांधने का काम अगर कोई एक भाषा कर सकती है तो वो सर्वाधिक बोले जाने वाली हिंदी भाषा ही है"
सोर्स- बाबा साहेब डॉ॰ अम्बेडकर, सम्पूर्ण वाङ्मय खंड-1
पेज- 160, 164, 167
(श्वेता युवा पत्रकार हैं. भिन्न मुद्दों पर लिखती हैं. यह आलेख उन्होंने अम्बेडकर के विचारों पर केंद्रित होकर लिखा है. )
(यहां दिये गये विचार लेखक के नितांत निजी विचार हैं. यह आवश्यक नहीं कि डीएनए हिन्दी इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे और आपत्ति के लिए केवल लेखक ज़िम्मेदार है.)
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