डीएनए स्पेशल
संख्याएं ना होतींं तो योजनाओं के ढांचे भी खड़े न होते. सांख्यिकी के अभाव में विकास की योजनाएं कैसे सिरे चढ़ती? इसका उत्तर भी महालनोबीस को जाता है.
डीएनए हिंदी: किसे मालूम होगा कि भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं.जवाहरलाल नेहरू की आधुनिक भारत के निर्माण की महत्वाकांक्षी योजना में प्रशांतचंद्र महालनोबीस की अहम भूमिका थी. प्रशांतचंद्र सांख्यिकी विद् थे. भारतीय सांख्यिकी संस्थान के संस्थापक. पं.नेहरू की तरह वह भी स्वप्नदृष्टा थे. वह न होते तो देश सार्वजनिक क्षेत्र के नेतृत्व में सुनियोजित विकास के मार्ग पर यूं अग्रसर न हो पाता. स्वतंत्र भारत की द्वितीय पंचवर्षीय योजना महालनोबीस मॉडल पर ही आधारित थी. वह भारत में सांख्यिकी आंदोलन के जनक थे. भारत में सांख्यिकी तंत्र के विकास का संपूर्ण श्रेय उन्हें जाता है. केंद्रीय सांख्यिकी संगठन, राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण, प्रांतों में सांख्यिकी ब्यूरो और केंद्रीय योजना आयोग में सांख्यिकी विभाग की स्थापना में उनकी नाभिकीय भूमिका रही. उन्हीं की प्रेरणा और प्रयासों से भारत में सांख्यिकी तंत्र विकसित हो सका.
कौन थे प्रशांतचंद्र महालनोबीस?
यह सवाल सामने आता है तो कई और सवाल खड़े होते हैं. जैसे हममें से कितने लोग उन्हें जानते हैं? कितने उन्हें याद करते हैं? कितनों को भारत की प्रगति में उनके योगदान का पता है? आंकड़े ना होते तो योजनाओं के ढांचे भी खड़े न होते. सांख्यिकी के अभाव में हमारी गणना भला कैसे सिरे चढ़ती? इन प्रश्नों का उत्तर भी महालनोबीस को जाता है.
सन् था 1893. ब्रिटिश इंडिया की राजधानी कलकत्ते में प्रतिनिधि महालनोबीस-परिवार में 29 जून को प्रशांत का जन्म हुआ. परिवार की पृष्ठभूमि अत्यंत समृद्ध थी. पिता प्रशांतचंद्र महालनोबीस (1869-1942) संपन्न व्यवसायी थे. मां श्रीमती नीरोदवासिनी विदुषी महिला थीं. मामा नीलरतन सरकार की गिनती अपने समय के मशहूर चिकित्सकों, उद्योगपतियों और शिक्षाविदों में होती थी. दादा गुरुचरण महालनोबीस (1833-1916) ब्रह्मो समाज के सक्रिय सदस्य थे. उनकी कथनी के बजाय करनी पर निष्ठा थी. अत: उन्होंने परिवार और समाज के सदस्यों के विरोध की अवज्ञा कर सन् 1864 में एक विधवा से विवाह किया था. महालनोबीस परिवार और जोड़ासांको के ठाकुर परिवार में घनिष्ठ संबंध थे. रवीन्द्रनाथ ठाकुर (टैगोर) के पिता देवेन्द्रनाथ (1817-1905) ही गुरुचरण को ब्रह्मसमाज में लेकर आये थे. यूं तो रवीन्द्रनाथ प्रशांत से 32 साल बड़े थे, किन्तु दोनों में बहुत अंतरंग संबंध थे. प्रशांत का परिचय तो रवीन्द्रनाथ से था, किन्तु दोनों में संबंध प्रगाढ़ सन् 1910 में तब हुए जब प्रशांत सन् 1910 में छुट्टियां बिताने शांति निकेतन आए. प्रशांत की विद्वत्ता और विवेक से रवीन्द्रनाथ के मन में उनके प्रति सम्मान जागा.
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रवीन्द्रनाथ टैगोर और प्रशांतचंद्र की दोस्ती
सन् 1913 में रवीन्द्र बाबू को साहित्य के लिए नोबेल सम्मान मिला. युवा प्रशांत ने रविबाबू की कृतियों का एक समालोचना लिखी. बुद्धदेव बसु ने उसे छापा. रविबाबू ने पढ़ा तो प्रशांत को खत लिखा : ‘मेरी उपलब्धियों और प्रसिद्धि से जुड़ी हर चीज के विश्लेषण के बाद तुमने जो भी लिखा वह ठीक है.’ उनकी एक अन्य कृति पर प्रशांत के लेख पर उन्होंने लिखा-‘‘मुझे तुम्हारा लेख बड़ा पसंद आया. विकास के परिप्रेक्ष्य में मेरे मानववाद के इतिहास का तुमने जिस तरह वर्णन किया है, उससे इस संबंध में मेरी धारणा स्पष्ट हो गयी है. रवीन्द्र बाबू उनकी लेखकीय क्षमता पर मुग्ध थे. एकदा उन्होंने लिखा : ‘एडवर्ड टाम्पसन कह रहे थे कि मेरी रचनाओं के अनुवाद का एक संकलन आना चाहिए. इसके लिए किसी को मेरी पांडुलिपियों को कालक्रम के अनुरूप जमाना होगा. यह काम तुमसे अच्छा कोई और नहीं कर सकता.’ कालांतर में प्रशांत को रविबाबू की रचनाओं की चयनिका के संपादन का दायित्व सौंपा गया. चीनी व जापानी शैली में रविबाबू के संकलन ‘स्फुलिंग’ का श्रेय भी उन्हें ही है. बताते हैं कि जर्मनी से प्रकाशित इसके संस्करण के लिए उन्होंने ही प्रकाशक से संपर्क किया था. सन 1932 में रविबाबू की आवाज में उनकी रचनाओं की रिकार्डिंग में भी उनका योगदान था. रविबाबू मंचीय कार्यक्रमों में भी उनका परामर्श लेते थे, चाहे नृत्यनाटिका हो या सांगीतिक उपक्रम. रविबाबू के विजन को साकार करने में वे सतत सक्रिय रहे. विश्वभारती गुरुदेव के ‘विजन’ का साकार रूप था. 23 दिसंबर, सन् 1921 को उसकी स्थापना हुई. प्रशांत करीब 10 वर्षों तक ‘विश्वभारती’ के संयुक्त सचिव रहे. संकट में गुरुदेव ने उन्हें पत्र लिखा-‘‘शांतिनिकेतन घोर संकट में है... शुक्रवार की शाम तक तुम यहां जरूर पहुंच जाओ... तुमसे मेरा अनुरोध है कि आने में देर मत करना... आओ, और मुझे इन समस्याओं से मुक्ति दिलाओ.
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पहले विश्व युद्ध के बाद
तो यह था प्रशांतबाबू पर रविबाबू का विश्वास और अवलंबन. कवींद साहित्य में उनकी गहरी पैठ थी. बांग्ला-साहित्य में दखल का ही नतीजा था कि प्रशांतचंद्र ‘द ऑक्सफोर्ड बुक ऑफ बंगाली वर्स’ के लिए एडवर्ड टम्पसन के प्रमुख सलाहकार रहे. ब्राह्म बाल विद्यालय में प्राथमिक शिक्षा के उपरांत विधिवत प्रवेश-परीक्षा उत्तीर्ण कर उन्होंने सन् 1908 में प्रेसीडेंसी कॉलेज में दाखिला लिया. सन् 1912 में भौतिकी (ऑनर्स) में उपाधि के पश्चात वे इंग्लैंड चले गये. वहां कैंब्रिज विश्वविद्यालय से उन्होंने गणित ट्राइपोस (खंड : एक) और प्राकृतिक विज्ञान ट्राइपोस (खंड छ दो) की परीक्षाएं उत्तीर्ण कीं.खंड दो की परीक्षा में अव्वल आने से उन्हें वरिष्ठ अनुसंधान वृत्ति मिली. उनकी ख्वाहिश कैवेंडिश प्रयोगशाला में अनुसंधान की थी, किन्तु उनकी यह इच्छा अधूरी रह गयी. सन् 1915 में वे भारत लौट आये।
यूं तो भारतीय सांख्यिकी की शुरूआत प्रथम विश्व युद्ध के बाद ही हो गयी थी. अलबत्ता इसकी औपचारिक स्थापना 17 दिसंबर, सन् 1931 को प्रेसीडेंसी कॉलेज में भौतिकी के प्रशांतचंद्र के कमरे में सांख्यिकी प्रयोगशाला की स्थापना से हुई. सांख्यिकी तब विज्ञान की मान्य शाखा न थी, लेकिन रवीन्द्रनाथ ठाकुर, नीलरतन सरकार और ब्रजेन्द्रनाथ सील जैसे विद्वान इसकी महत्ता को बूझ रहे थे. प्रशांतचंद्र को इस त्रयी का नैतिक समर्थन और प्रोत्साहन मिला. रवीन्द्रनाथ वहां अनेक बार आये और प्रशांत की शुरुआती टीम से बखूबी परिचित हो गये. कृतज्ञ प्रशांत ने लिखा-‘रवीन्द्रबाबू में इस बात का मूल्यांकन करने की कल्पनाशक्ति थी कि हम अनेक कठिनाइयों और विरोधों के बीच अग्रणी कार्य कर रहे थे. उनका प्रभाव कितना गहरा था, इसे शब्दों में व्यक्त करना मेरे लिए मुमकिन नहीं है।’
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238 रुपये से हुई थी शुरुआत
भारतीय सांख्यिकी संस्थान को पश्चिम बंगाल सरकार से पहला रुपये पांच हजार का अनुदान सन् 1936 में मिला. प्रारंभ में क्या था. इने-गिने लोग. एक अंशकालिन कम्प्यूटर. खर्च कुल जमा 238 रुपये. लेकिन धुन के पक्के प्रशांतबाबू की लगन और मेहनत कि जल्द संस्थान ने वटवृक्ष का रूप ले लिया. सन् 50 के दशक में बैरकपुर ट्रंक रोड पर संस्थान का परिसर बना तो प्रेसीडेंसी कॉलेज छूट गया. 28 जून, 1972 को जब यह महान व्यक्तित्व पंचतत्व में विलीन हुआ तो इसका विस्तार कलकत्ते के साथ ही बंगलौर, बड़ौदा, बंबई, दिल्ली, एर्नाकुलम, गिरिडीह, मद्रास और त्रिवेंद्रम में था. करीब 2200 कर्मचारी कार्यरत थे और खर्चा था कई कोटि रुपये.
प्रशांतचंद्र की अवधारणाएं बहुत स्पष्ट थीं. सरकार के साथ काम करना उनकी वरीयता थी, लेकिन संस्थान की स्वायत्तता उनकी चाहत. आईएसआई (संस्थान) सार्वजनिक क्षेत्र में था, लेकिन सरकारी महकमा न था. उन्होंने अधिकाधिक सरकारी काम लिए, लेकिन शोध, विकास और प्रयोग जारी रखे. उन्होंने वैज्ञानिक अनुसंधान और विकास में प्रौद्योगिकी के परिकलन को सर्वप्रथम समझा. वे वक्त से आगे चलते थे. सन् 40 के दशक में संस्थान में फेसिट किस्म के डेस्क कम्प्यूटर और होलेरिश किस्म के सार्टर और वेरीफायर उपयोग में थे. आंकड़ों के संवर्धन के लिए आईबीएम, होलेरिश और पावर समास जैसी आला कंपनियों की विद्युत-यांत्रिक मशीने लगी थीं. संपूर्ण इलेक्ट्रॉनिक संगणक सबसे पहले संस्थान में आया. प्रशांतचंद्र ने सन् 1959 में सोवियत रूस की मदद से यूएनओ के जरिये यूआरएल जैसा बड़ा संगणक ला दिखाया. फलत: संस्थान सन् 1960 तक देश के महत्वपूर्ण संगठनों की परिकलन की जरूरतों को पूरा करने में सक्षम हो गया. सन् 1964 में उन्होंने बिना सरकारी मदद के आईबीएम 1401 किराये पर लिया तो सरकारी एजेंसियों और घरानों को 50 फीसद समय बेचकर किराया चुकाने की नायाब युक्ति निकाली. यंत्रों से राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण के आंकड़ों का संवर्धन कर उन्होंने प्रगति की आधारशिला रख दी.
1933 में निकाली पत्रिका ‘संख्या’
प्रशांतचंद्र ने सन् 1933 में ‘संख्या’ पत्रिका निकाली. यह सांख्यिकी पत्रिका विश्व स्तरीय थी. उसने मानक रचे. वे चाहते थे कि भारत में विज्ञान-परंपरा सशक्त व गौरवशाली बने. उन्होंने ब्रह्म विद्यालय को अर्थाभाव से उबारा. मेघनाद साहा की मदद की और निखिल चक्रवर्ती के जरिए कम्युनिस्ट पार्टियों की. अनेक विश्वविख्यात वैज्ञानिक संस्थान में आए. कुछ रहे भी. आरएन फिशर, एएन कोल्मोगोरोव, वीवू लिनिक, जेएल डूब, डब्लू शेवर्ट, डब्लू ई डेमिंग, ए.वाल्ड, जे.नूमन, एन वायनर ही नहीं, मादाम क्यूरी और नील्स बोर भी. हाल्डेन यहां कई साल रहे.
उन्होंने कई कुत्ते, बिल्लियां और तीन गायें पाल रखी थीं. लंदन रॉयल सोसायटी के फेलो (1945) के अलावा उन्हें अमेरिका, पाकिस्तान, ब्रिटेन, सोवियत संघ, चेकोस्लोवाकिया के संस्थानों ने सम्मान और तमगे दिए. वे इंडियन नेशनल साइंस एकेडेमी के संस्थापक (1935) और अध्यक्ष (1957-58) रहे. भारत सरकार ने उन्हें पद्मविभूषण से नवाजा. उनकी स्मृति में डाक टिकट भी निकला. कलकत्ते में राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के मुख्यालय-भवन का नाम इसी महान शख्सियत के नाम पर : ‘महालनोबीस-भवन’ रखा गया. कभी जाएं तो नमन करना न भूलें.
(डॉ. सुधीर सक्सेना लेखक, पत्रकार और कवि हैं. 'माया' और 'दुनिया इन दिनों' के संपादक रह चुके हैं.)
(यहां दिए गए विचार लेखक के नितांत निजी विचार हैं. यह आवश्यक नहीं कि डीएनए हिन्दी इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे और आपत्ति के लिए केवल लेखक ज़िम्मेदार है.)
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