डीएनए स्पेशल
बौद्ध धर्म का भारत से ख़ात्मा करने वाले वे ही सनातनी रहे जिन्होंने नालंदा विश्वविद्यालय को जलते हुए छह महीने तक देखा और कुछ नहीं किया...
इतिहास केवल खंडहरों में नहीं मिलता ...
अगर आप सिर्फ नालंदा के भग्नावशेषों को देख कर लौट आते हैं तो बहुत कुछ अनदेखा रह जाता है. इतिहास सिर्फ खंडहरों में नहीं, उसके आसपास के इलाकों में, गांवों में, खेतो, खलिहानों में भी दबा हुआ है. किसी न किसी रुप में इतिहास वहां सांसे लेता है. लोक उसे बचा कर रखता है. ये अलग बात है कि लोक इतिहास को आस्था में बदल देता है. ऐसे में इतिहास पुरातत्तव विभाग के हाथ से बाहर निकल जाता है. लोक के हवाले होते ही इतिहास लोक-आस्था से जुड़ कर अपना नया नैरेटिव गढ़ लेता है. यकीन न हो तो किसी भी प्राचीन इमारत के आसपास गांवों में घूम आइएगा... प्राचीन मूर्तियां किसी बरगद के नीचे, किसी छोटे मंदिर में, किसी नदी के घाट पर रखी मिलेंगी, जो कई नामों से पूजी जाती होंगी. मेरी यात्राओं ने ऐसे कई दृश्यों का साक्षी बनाया है. नांलदा में भी ऐसा ही हुआ. मेरी रुचि मुख्य इमारत से हट कर आसपास ज्यादा रहती है. मेरा अनुभव ऐसा कहता है कि इतिहास छिटक कर कहीं छिपा हुआ है या जमीन के भीतर दबा हुआ है, जिसके ऊपर आज के गांव बसे हुए हैं. इतिहास के ऊपर वर्तमान बैठ जाता है तो कई ऐतिहासिक चीजों के नाम बदल जाते हैं. ऐसे ही एक मजेदार किंतु विचित्र सत्य के बारे में पता चला.
जैसा कि हम जानते हैं नालंदा के बारे में और उच्च शिक्षा का केंद्र, दुनिया के सबसे प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय (Nalanda University) के बारे में. जिसकी स्थापना पांचवीं शताब्दी में गुप्त वंश के शासक सम्राट कुमारगुप्त ने की थी. पांचवी से 12 वीं शताब्दी तक यह बौद्ध विश्वविद्यालय अस्तित्व में था.
यह भी जानते होंगे कि कैसे विशालकाय नालंदा विश्वविद्यालय (Nalanda University) को बख्तियार खिलजी ने 1199 में आग लगवा दिया था और कहते हैं कि वहां इतनी बड़ी लाइब्रेरी थी, इतनी पुस्तकें थीं कि लगातार छ: महीने तक वह जलती रही. वहां के समाज ने छ: महीने तक इस आग को सुलगते हुए देखा होगा. जाने कैसा समाज रहा होगा, उस काल में? इस सवाल का जवाब तलाशेंगे आगे.
पहले आपको वहां ले जाते हैं, जहां एक अदभुत जानकारी मिली. जसे जान कर हंसी आएगी या हद अफसोस भी या फिर आस्था ठीक वैसे ही जड़ें जमा लेगी जैसे उन ग्रामीणों के बीच... यहां लोक आस्था से टकराव असंभव है.
जहां बुद्ध को मिला मध्यम मार्ग का ज्ञान
नालंदा के उत्खनन वाले क्षेत्र से 4 किलो मीटर दूर, दक्षिण-पश्चिम में स्थित एक गांव है, जगदीशपुर. यहां एक ऊंचे टीले पर मार्ग विजय से संबंधित एक विशाल शिलापट्ट पर व्रजासन मुद्रा में बुद्ध की मूर्ति है. कहते हैं, मूर्ति का निचला हिस्सा जमीन के भीतर तक धंसा हुआ है जिसे उखाड़ना असंभव है. यह स्थान बुद्ध की सिंहासन भूमि है, उन्हें उनके आसन से विचलित करना उस काल में भी असंभव रहा. एक कथा के अनुसार उन्हें अपने आसन से विचलित करने के लिए “मार ( इंद्र)” ने अपनी सुंदर कन्याओं को भेजा कि वे उनका ध्यान भंग कर सकें. जब कन्याओं का वहां सरस गायन चल रहा था तभी उन्हीं कन्याओं में से किसी एक ने वीणावादक को कहा - वीणा के तार को इतना मत कसो कि तार टूट जाए. और इतना ढीला मत छोड़ दो कि उसमें से सुर ही न निकले. अर्थात वीणा के तार को मध्यमावस्था में रखो. इसी मध्यम मार्ग का ज्ञान बुद्ध को हुआ. उसी का चित्रण शिलापट्ट पर अंकित है. स्थानीय ग्रामीण इस मूर्ति को, स्थान को रुक्मिणी स्थान कहते और पूजते हैं.
इसी तरह एक और मूर्ति है, काले पत्थर की बुद्ध (Gautam Buddha) की विशालकाय मूर्ति, जिसे स्थानीय ग्रामीण इस युग में तेलिया बाबा , काल भैरव, शनिदेव इत्यादि जाने कितने नामों से पुकारते हैं.
जब मैं इस मूर्ति को खोजती हुई वहां पहुंची थी तब पता नहीं था कि जिस धर्म से भाग कर एक अलग धर्म की स्थापना करने वाले गौतम बुद्ध को वही धर्म अपना भगवान बना लेगा . उन्हें अपने दशावतार में शामिल करके उनकी अलग अस्मिता को ही मिटाने की कोशिश करेगा. कितना बड़ा झूठ हम बचपन से पढ़ते चले आ रहे हैं कि बुद्ध विष्णु के दशावतार परंपरा के नौंवे अवतार थे. हिंदू धर्म से छिटक कर वे अलग राह पर चले, उन्हें अंतत: हिंदू धर्म ने अपनी अवतार परंपरा से जोड़ लिया. इससे ज़्यादा हास्यास्पद बात क्या हो सकती है कि एक तरफ उन्हें दशावतार से जोड़ा गया, दूसरी तरफ़ बौद्ध मठों को उजाड़ा गया. बौद्ध विहार नष्ट किए गये और बौद्ध धर्मावलंबियों को जबरन गृहस्थ बनाया गया. बौद्ध धर्म का भारत से ख़ात्मा करने वाले वे ही सनातनी रहे जिन्होंने नालंदा विश्वविद्यालय को जलते हुए छह महीने तक देखा और कुछ नहीं किया. वह समाज कितना चतुर कायर होता है जो चुपचाप अन्याय होते देखता है...
इतनी किताबें इतने महीनोंं तक जलती रहीं...
नालंदा के खंडहरों में युवा गाइड ने दबी ज़ुबान में मेरे सवालों का सटीक जवाब दिया. जब वो बता रहा था कि इतनी किताबें थीं कि छह महीने तक जलती रहीं, मैंने पूछा कि उस समय का समाज किया कर रहा था? उन्होंने कुछ किया क्यों नहीं? आक्रमणकारी आग लगा कर चले गए, स्थानीय लोग आग सेंकते रहे?
गाइड ने कहा - “इसमें सिर्फ़ बख्तियार का हाथ नहीं, बौद्ध धर्म के बढ़ते प्रभाव से घबराये हुए सनातनियों का बड़ा हाथ था. बिना उनकी मदद के इतना बड़ा विश्वविद्यालय इस तरह नष्ट नहीं किया जा सकता था."
सही कह रहा था गाइड. उस वक्त इसी विश्वविद्यालय से दुनिया भर में बौद्ध धर्म फैल रहा था. यहां से पढ़ कर छात्र दुनिया भर प्रचार-प्रसार के लिए जाते थे. बौद्ध धर्म से सनातन धर्मावलंबियों को लगातार चुनौती मिल रही थी. उन्हें अपना धर्म ख़तरे में नज़र आने लगा था. स्त्रियां घरेलू हिंसा से घबरा कर मठों में पनाह लेने लगी थीं. वे भिक्षुणी बन रही थीं. गृहस्थ आश्रम की व्यवस्था चरमराने लगी थी. सब चिढ़े बैठे थे. मौक़ा मिला और उन्होंने आक्रमणकारियों के साथ मिल कर बौद्ध धर्म को उजाड़ दिया. कुछ बाहरी आक्रांताओ ने उजाड़ा तो कुछ कट्टर हिंदू शासकों ने. जिन्होंने फिर से हिंदू धर्म की स्थापना की और देश भर मंदिर बनवा कर, धर्माचार्यो को भेज कर अपना वर्चस्व क़ायम किया.
हास्यास्पद बात यह कि बौद्ध धर्म को उजाड़ दिया और गौतम बुद्ध को अपना अवतार मान कर उनके देवी देवताओं को हिंदू देवी देवताओं में शामिल कर लिया. आज भी बौद्ध देवियाँ कई सवर्ण जातियों की कुलदेवी बनी हुई हैं.
ख़ैर…
युवा गाइड बहुत खीझा हुआ था. उसने साफ़ कहा कि सनातनियो ने साथ दिया तभी नालंदा विश्वविद्यालय (Nalanda University) जल कर ख़ाक हो गया. ऐसे कैसे छह महीने तक कोई भवन जलता रहेगा और उसकी आंच लोगों तक नहीं पहुंंचेगी ? कैसे वहां का समाज अंधा, गूंगा, बहरा बना रहेगा?
गाइड ने मेरी शंका को सही ठहराया. मुझे यह शंका थी कि कहीं न कहीं उस वक्त का समाज खलनायक की भूमिका में था. इस बार नालंदा यात्रा के दौरान मैंने तहक़ीक़ात की. इतिहास क्या कहता है, मैंने पड़ताल नहीं की. लोक मानस में कौन से कारण दर्ज हैं, मैंने उसकी पड़ताल की. मैं सही साबित हुई.
हिंदू देवता बने बुद्ध
कितनी बड़ी विडंबना है कि बुद्ध की मूर्ति को अलग अलग नामों से हिंदू पूज रहे हैं.
जिस गाँव , क्षेत्र में यह काली मूर्ति स्थापित है उसका प्राचीन नाम सारिपुत्र ग्राम हैं, वर्तमान में उसका नाम सारिल चक है.
कहते हैं सारिपुत्र बुद्ध के प्रिय शिष्यों में से एक थे.पाली बौद्ध साहित्य “ महासुदर्शन जातक” में लिखा है कि सारिपुत्र का जन्म स्थल नालंदा ही था. गौतम बुद्ध जब नालंदा के पावारिक आम्रवन में ठहरे हुए थे , उसी समय सारिपुत्र अपने मित्र मौदगलयान के साथ आए और बुद्ध के उपदेशों से प्रभावित होकर दोनों उनके परम शिष्य बन गए.
उन्हीं के जन्म स्थल पर बुद्ध उनके ग्रामीणों के तेलिया बाबा हैं, शनिदेव हैं, काल भैरव हैं.
जब मैं वहाँ पहुँची तो छोटे से मंदिर के बाहर तेल की छोटी छोटी शीशियां बिक रही थीं. मुझे एक लड़के ने ख़रीदने को कहा. मैंने आश्चर्य से पूछा कि "बुद्ध की मूर्ति देखने आई हूंं, इन पर तेल क्यों चढ़ाना? तेल तो क्या, कुछ भी नहीं चढ़ाना. मैं तो बस मूर्ति देखना चाहती हूं."
फिर उस लड़के ने विस्तार से मूर्ति का इतिहास, स्थानीय लोगों की आस्था के बारे में बताया.
मंदिर तक पहुँचने का मार्ग संकरा है जहां हम बैट्री ऑटो से पहुंचे थे. गाड़ी वहां तक नहीं जाती है. घना गांव है, खेतों के बीच से होकर रास्ता मंदिर तक जाता है. मंदिर से सटा हुआ ही नालंदा विश्वविद्यालय का परिसर है. वहां से सारे भग्नावशेषों को देखा जा सकता है, हालांकि पूरा परिसर से घिरा हुआ है. सिर्फ़ बुद्ध की यह प्राचीन काली मूर्ति परिसर से बाहर है. न सिर्फ़ परिसर से बल्कि सरकार के, पुरातत्व विभाग के नियंत्रण से बाहर , स्थानीय आस्था के अधीन है.
विश्वास ही धर्म है...
इस साधारण मंदिर में स्थापित विशालकाय बुद्ध की काली मूर्ति तेल की धार से चमकती रहती है. बुद्ध कमल आसन पर बैठे हुए हैं. मंदिर के युवा रक्षक नीतिश कुमार पांडेय उत्साह में भर कर पूरा इतिहास हमें बताते हैं, साथ ही हमारी सभी शंकाओं का समाधान भी करते हैं. उन्होंने ही बताया कि यह मूर्ति सातवीं शताब्दी की है, सम्राट हर्षवर्द्धन काल की. उनकी जुबानी सुनिए- “यह मूर्ति उस काल की है जब नालंदा शिक्षा का सबसे बड़ा केंद्र था , दस हजार विधार्थी और 1500 शिक्षक यहां पठन-पाठन में लगे हुए थे. यहीं पर मूर्तिकला की पढ़ाई शुरु हुई. यह नालंदा की मुख्य मूर्ति है. इसी मूर्ति को देख कर नालंदा की खुदाई की गई थी. राजा हर्षवर्द्धन ने ( 606-647 ई.) अपने शासन काल में नालंदा का पूर्ण विकास किया था और अपने सौ गांव का राजस्व दान में दिया था ताकि यहां के विधार्थी भिक्षाटन न करें. उनका जीवन निर्वाह हो सके. विधार्थी लोग यहीं पर रह कर अपनी कला का प्रदर्शन करते थे. यह मूर्ति तब के विधार्थियों ने ही बनाया था. यह गौतम बुद्ध की मूर्ति जरुर है लेकिन हमारे ग्रामीण लोग इन्हें तेलिया बाबा कहते हैं.”
मुझे अचरज करते देख नीतिश रुका. वह धाराप्रवाह बोलता है. उसने कहा- विश्वास ही धर्म है. धर्म और क्या है. जब स्थानीय लोग इन्हें मानते हैं, उन्हें चढ़ावा चढ़ाते हैं, मन्नत मानते हैं, पूरी होती है तो ये तेलीया बाबा के रुप में प्रख्यात हो गये.
नीतिश ने बताया कि जब मन्नत पूरी होती है तो गांव वाले इन पर तेल और घी चढ़ाते हैं. मन्नतें भी कैसी, चढ़ावा भी कैसा... यह सुन कर मुस्कान उभरी.
“ग्रामीण लोग तेलिया बाबा से मन्नत मांगते हैं कि मेरा बच्चा दुबला न पैदा हो. दुबला पैदा हो गया तो इसे स्वस्थ, मोटा बना दीजिए, अगर सुखड़िया रोग का शिकार हो गया हो तो इसे स्वस्थ, हृष्ट-पुष्ट, निरोग कर दीजिए... माताएं यहां आकर मनौती मांगती हैं कि बाबा आप अपनी तरह हमारे बच्चों को स्वस्थ बना दीजिए, आपकी तरह स्वस्थ हो जाएगा तो हम आप पर घी, तेल चढ़ाएंगे.”
नीतिश की बात सुन कर मुझे ज़ोर से हंसी आई थी. मन्नते मांगते तो बहुत देखा है. शिव मंदिरों में श्रद्धालु शिव की सवारी नंदी बैल के कान में मनौती मांगते हैं...एक कान में मन्नत मांगते हैं, दूसरा कान बंद कर देते हैं. ताकि मन्नतें दूसरे कान से बाहर न निकल जाएं.
नीतिश ने बताना जारी रखा- “ बुद्ध कमल आसन पर बैठे हैं, यह पांच मंजिला आसन है. एक आसन ऊपर निकला है, बाकी चार आसन नीचे धंसा हुआ है. जब बख्तियार खिलजी ने नालंदा में आग लगाया था तब इस मूर्ति को लेकर अपने देश चला जाना चाहता था. पहले तो क्रेन की व्यवस्था नहीं थी, इसलिए हाथी घोड़ों की मदद से, सीकड़ इनके गले में डाल कर उठाना चाहा. जितना उठाता, मूर्ति उतनी अंदर धंस जाती. जब वह मूर्ति नहीं ले जा सका तो जाते जाते क्रोध में आकर मूर्ति को खंडित कर गया. इसकी ऊंगली, नाक, कान देखिए... मूर्ति के सौंदर्य को ही नष्ट कर देना चाहा.”
इतनी प्राचीन मूर्ति स्थानीय लोगों की आस्था के कैद में हैं. स्थानीय लोग ही इसकी देख-रेख करते हैं. उनके लोकदेव जो बन गये हैं गौतम बुद्ध. यूनेस्को ने नालंदा (Nalanda University)को विश्व धरोहर तो घोषित कर दिया है लेकिन बुद्ध की यह प्राचीन मूर्ति उनकी पहुंच से बाहर है. नितीश ने ही हमें बताया कि मूर्ति और मंदिर की देख रेख के लिए सरकार से कोई सहायता नहीं मिलती है.
नालंदा के खंडहरों में घूमते हुए हमारा गाइड उस जगह ले गया जहां मूर्तियां बनाई जाती थी और मूर्तिकला का प्रशिक्षण दिया जाता था. उस जगह को जंजीरों से घेर दिया गया है. दूर से आप उस जगह को देख सकते हं जहां मूर्तिकला विकसित हुई थी. जहां से बुद्ध की मूर्तियां बननी शुरु हुई थीं. बुद्ध के निर्वाण के कई सौ साल बाद उनकी मूर्ति बनी.
आज तो बुद्ध की मूर्तियां सबसे अधिक बिकने वाली, डिजाइनर मूर्तियां हैं... बाग-बगीचे से लेकर ड्राइंग रुम तक वे शोभा बढ़ाती हुई मिल जाएंगी. फैशन में लगायी गयी इन मूर्तियों से किसी की आस्था शायद ही जुड़ी हों. लेकिन कुछ लोग ऐसे हैं जिनके लिए बुद्ध की मूर्तियां फैशन नहीं, आत्मिक शांति, सुकून का प्रतीक हैं.
(गीताश्री लेखिका और पत्रकार हैं. अपने प्रखर विचारों और लोकप्रिय पुस्तकों के लिए सुख्यात हैं.)
(यहां दिये गये विचार लेखक के नितांत निजी विचार हैं. यह आवश्यक नहीं कि डीएनए हिन्दी इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे और आपत्ति के लिए केवल लेखक ज़िम्मेदार है.)
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