डीएनए स्पेशल
19 अप्रैल 1945 को जन्मी सुरेखा सीकरी की उच्च शिक्षा अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से हुई जबकि उनका बचपन नैनीताल और अल्मोड़ा में बीता.
डीएनए हिंदी: साहित्य हो या सिनेमा स्त्रियों का जीवन संघर्ष से भरा रहा. वह अपनी जिजीविषा से हर जगह भी अपना स्थान बनाने में सफल हुईं और आज स्त्री विमर्श विश्व साहित्य का हिस्सा बन चुका है. स्त्री घर और परिवार से नहीं बल्कि उसके बंधनों से मुक्ति चाहती है. वह अपना जीवन अपने तरीके से जीना चाहती है. विख्यात साहित्यकार महादेवी वर्मा स्त्री विमर्श की बहुचर्चित अपनी पुस्तक ‘शृंखला की कड़ियां’ में लिखती हैं- “स्त्री न घर का अलंकार मात्र बनकर जीवित रहना चाहती है, न देवता की मूर्ति बनकर प्राण प्रतिष्ठा चाहती है. कारण वह जान गई हैं कि एक का अर्थ अन्य की शोभा बढ़ाना है तथा उपयोग न रहने पर फेंक दिया जाना है तथा दूसरे का अभिप्राय दूर से उस पुजापे का देखते रहना है, जिसे उसे न देकर उसी के नाम पर लोग बांट लेंगे.” हिंदी सिनेमा में महिलाओं का संघर्ष पुरुषों से कई गुना अधिक है क्योंकिं उनके साथ देह का प्रश्न जुड़ा हुआ है.
सुरेखा सीकरी का जन्म ऐसे दौर में हुआ जब भारत अपनी आज़ादी की भूमिका लगभग तय कर चुका था. गुलामी की टूट चुकी जंज़ीर को बस उतार कर फेंकना बाकी था. 19 अप्रैल 1945 को जन्मी सुरेखा सीकरी की उच्च शिक्षा अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से हुई जबकि उनका बचपन नैनीताल और अल्मोड़ा में बीता. उनके चेहरे पर जो कद्दावर महिला का तेज देखने को मिलता है वह अनायास नहीं है. एयरफोर्स में नौकरी करने वाले पिता से जीवन-अनुशासन और अध्यापक मां से घर-परिवार और समाज चलाने के कायदे सीखकर उनका पूरा वजूद बनता है. उनके व्यक्तित्व में उनके पिता की यात्राओं की भूमिका निर्णायक है.
देश की प्रतिष्ठित रंगमंच की संस्था ‘राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय’ (NSD) से प्रशिक्षित सुरेखा सीकरी ने रंगमंच की दुनिया में अपनी जो पहचान बनायी उसका फायदा उन्हें फिल्मों में भी मिला. अपने प्रशिक्षण के दौरान वह निर्देशकों के बीच लोकप्रिय थीं. एन.एस.डी. उत्तीर्ण होने के बाद भी लगभग एक दशक तक वह ‘एनएसडी रिपर्टरी कम्पनी’ से जुड़ी रहीं तो केवल इस कारण की उनकी अभिनय शैली में कुछ ऐसा था जो लोगों को आकर्षित करता और रंगमंच से जुड़े लोगों को प्रभावित करता था. वहां रंगमंच के प्रशिक्षण के दौरान उन्होंने दर्जनों नाटकों में काम किया लेकिन ‘तुगलक’ और ‘आधे अधूरे’ से उनकी पहचान स्थापित हुई.
इन नाटकों की उस समय धूम थी. तुगलक ने तो लोकप्रियता के कई कीर्तिमान स्थापित किए. आधे-अधूरे पौराणिक ‘सावित्री’ की छवि के बरक्स आधुनिक मध्यवर्गीय महिला की छवि को सामने लाने में सफल हुआ जिसमें सावित्री नाम की महिला अपना परिवार चलाने के लिए घर से बाहर निकलकर स्त्री-मुक्ति का नया पाठ आरंभ कर देती है. ‘संध्या छाया’ नाटक ने उनकी अभिनय क्षमता को और मजबूत किया. सत्तर का दशक रंगमंच की दुनिया के लिए उल्लेखनीय है. इसी समय रंगमंच से निकले कई कलाकारों ने सिनेमा और साहित्य के बीच पुल का काम किया. नसीरुद्दीन शाह, ओमपुरी, एम.के.रैना, दिनेश ठाकुर, अनुपम खेर जैसे लोगों ने सिनेमा को अलग पहचान दिलाई. सुरेखा भी इन्हीं के साथ मुम्बई पहुंचीं. रंगमंच की पहचान ने उन्हें बहुत जल्द फिल्मों में भूमिका दिलवा दी जिसका फायदा भी उन्हें हुआ कि अन्य महिलाओं की तरह अधिक संघर्ष नहीं करना पड़ा.
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सुरेखा सीकरी ने जब हिंदी सिनेमा में कदम रखा तब वह अपनी मनोरंजन वाली छवि के साथ वैचारिक पृष्ठभूमि भी तैयार करने में जुटा हुआ था. एक ग्रुप सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति करने वाली फिल्मों का निर्माण कर रहा था. साहित्यिक दुनिया में जिसे ‘समान्तर सिनेमा’ का नाम दिया गया. इस काल में साहित्य और समाज में सिनेमा के सामाजिक मूल्य पर चर्चा शुरू हो चुकी थी. सिनेमा को आरंभ से ही केवल मनोरंजन का साधना माना गया लेकिन यथार्थवादी फिल्मकारों ने इस धारणा को तोड़ दिया. सुरेखा सीकरी की व्यक्तिगत जिंदगी तमाम उलझनों से गुजरती हुई आगे बढ़ी लेकिन उन्होंने अपने अभिनय से जो कद रंगमंच और सिनेमा में प्राप्त किया उसमें केवल उनकी मेहनत और अपने प्रोफेशन के प्रति उनकी प्रतिबद्धता थी. किस्सा कुर्सी का (1978), अनादि अनंत (1986), तमस (1986), सलीम लंगड़े पे मत रो (1989), परिणीति (1989) नज़र (1990), करामाती कोट (1993), लिटिल बुद्धा (1993), मम्मो (1994), नसीम (1995), सरदारी बेगम (1996), सरफरोश (1999), दिल्लगी (1999), कॉटन मैरी (1999), हरि-भरी (2000), ज़ुबैदा (2001), देहम (2001), काली सलवार (2002), मिस्टर एंड मिसेज अय्यर (2003), रघु रोमियो (2003), रेनकोट (2004), तुमसा नहीं देखा (2004),जो बोले सो निहाल (2005), हमको दीवाना कर गए (2006), देव.डी (2009),सूंघ (2017), बधाई हो (2018),शीर कोरमा (2020), भूत कहानियां (2020) जैसी फिल्मों में उनकी जो छवि बनती है वह भारतीय समाज में स्त्री की रूढ़ हो चुकी छवि का अतिक्रमण करती है.
इन फिल्मों की सूची देखें तो इसमें अधिकतर फ़िल्में समांतर सिनेमा को वैश्विक स्वरूप देने वाले श्याम बेनेगल की की हैं. कला और समान्तर सिनेमा के नाम पर जो अनायास वैचारिकी प्रलाप करने की कोशिश की गई उसे श्याम बेनेगल अपनी सहजता से तोड़ते हैं. दरअसल कला फिल्मों के नाम पर एक खास विचारधारा ने ऐसी जटिल फिल्मों का निर्माण आरंभ कर दिया जिसे समझने के लिए अतिरिक्त दिमाग लगाना पड़ता था, लिहाज़ा बहुत जल्द इसे दर्शकों ने नकार दिया. श्याम बेनगल कला, यथार्थवादी और समान्तर सिनेमा जैसी बहस में न पड़कर उसी थीम पर ऐसी फ़िल्में बनाते रहे जो उस वर्ग को भी समझ आती हैं, जिनके लिए वह बनायी जाती हैं. श्याम बेनेगल ने स्त्री की एक खास छवि का निर्माण भी किया जो आम चलताऊ सिनेमा हीरोइन न होकर भारतीय समाज में रहने वाली महिलाओं की तस्वीर दिखाती है. सुरेखा सीकरी श्याम बेनेगल के विश्वास को अपने अभिनय से और मजबूत करती रहीं. तमस, मम्मो और बधाई हो फिल्मों के लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार मिला.
मैं जब भी सुरेखा सीकरी की अभिनय यात्रा देखती हूं, एक बात सबसे अलग नज़र आती है, वह ये कि हिंदी सिनेमा में सह-नायिका की कोई हैसियत नहीं होती. मुख्य नायिका के साथ उसकी पहचान खानापूर्ति के लिए होती है लेकिन सुरेखा इसमें अपवाद हैं. वह अपने पूरे फ़िल्मी करियर में सह-नायिका ही रहीं लेकिन अपनी खास शैली के कारण कभी-कभी मुख्य नायिकाओं की भूमिका से बड़ी अभिनय रेखा खींच देती हैं. रंगमंच ने उन्हें जो पहचान दिलायी उससे उन्हें फिल्मों में प्रवेश तो मिला लेकिन उनके अंतिम समय तक उन्हें भूमिकाएं इसलिए मिलती रहीं क्योंकि उन्होंने अभिनय की अपनी शैली विकसित की थी साथ ही उन महिलाओं के जीवन को परदे पर जीया जिन्हें घर की सीमाओं में बांध दिया जाता है या थोथी नैतिकता और आदर्श की बेड़ियां उनके पैरों में डाल दी जाती हैं.
एक समय के बाद वह कुछ चुनिन्दा फिल्मों के साथ ही टेलीविजन धारावाहिकों में भी अभिनय करने लगीं. ‘एक था राजा एक थी रानी’, ‘बालिका वधू’, ‘मां एक्सचेंज’, ‘महाकुंभ’, ‘सात फेरे’, ‘बनेगी अपनी बात’ जैसे धारावाहिक उनकी भूमिका के कारण पसंद किए गए लेकिन ‘बालिका वधू’ ने सबका दिल जीत लिया. ‘बालिका वधू’ से उनकी जो छवि बनी वह आज तक लोगों के दिमाग में सुरक्षित है, आगे भी रहेगी. इस धारावाहिक की मुख्य नायिका आनंदी और उस उस घर की दादी यानी सुरेखा सीकरी ने एक दशक तक घर-घर में धारावाहिक की धाक बनाए रखी. मैंने काव्य शास्त्र में कायिक अभिनय की विभिन्न शैलियां पढ़ी थीं, लेकिन सुरेखा सीकरी द्वारा घटित होते देखती हूं. उनकी संवाद शैली, अंगुलियों को घुमा-फिरा कर बोलने का अंदाज़ और उनके चेहरे पर पारम्परिक दादी का रौब इस नाटक को इतना लोकप्रिय कर गया कि वह आनंदी से अधिक पसंद की जाने लगीं. जहां तक उनकी जीवन यात्रा के बारे में मैं जानती हूं, राजस्थान से कभी उनका कोई ताल्लुकात नहीं रहा लेकिन ‘बालिका वधू’ में उनके रग-रग में राजस्थान की संस्कृति, रहन-सहन, बोली झलकती है उन्होंने अपने अभिनय से इस धारावाहिक को जीवंत कर दिया. वास्तव में ‘बालिका वधू’ धारावाहिक ने से उनकी लोकप्रियता की नई रेखा खींची जिसका फायदा उन्हें बाद की फिल्मों में मिला. ‘बधाई हो’ जैसी बोल्ड विषय पर बनी फिल्म में उनका दादी का किरदार भला कौन भूल सकता है. ‘बालिका वधू’ में वह अपने किरदार से यह समझाने में सफल हो जाती हैं कि भारत के कुछ प्रदेशों में नई व्याहता स्त्रियां अपने ससुराल में पैरों की जूती समझी जाती हैं जहां उन्हें निर्मम और पुरानपंथी नियमों को मानना ही पड़ता है. ऐसी स्त्रियों की पीड़ा और वेदना को इस धारावाहिक में महसूस किया जा सकता है जिसकी सूत्रधार सुरेखा सीकरी हैं.
सुरेखा सीकरी सिनेमा के परदे पर महिला जीवन की सबसे दमदार उपस्थिति थीं. उनका जाना एक बुलंद किरदार का जाना है. अभिनय की एक पाठशाला का खत्म हो जाना है. रंगमंच की दुनिया में उनकी कद्दावर छवि महिलाओं को संबल देती थी. रंगमंच और सिनेमा के बड़े परदे से होते हुए छोटे परदे पर तक का उनका सफर एक सशक्त महिला की छवि बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. सुरेखा सीकरी के अभिनय की अपनी शैली थी, अपना अंदाज था.
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उनकी कद काठी और चेहरा तत्कालीन सिनेमा की महिला छवि से बिलकुल अलग था. तमस में निभाई गई उनकी भूमिका बेमिसाल है. सत्तर के दशक में हिंदी सिनेमा का पर्दा एक ऐसी लड़की से रूबरू हो रहा था जिसके चेहरे पर अचंभित करने वाला उत्साह था और आकर्षित करने वाला नैन नक्श. यह सच है कि सुरेखा सीकरी ने अपने दौर की पारंपरिक अभिनेत्रियों के सौंदर्य और नृत्य को चुनौती देते हुए आम स्त्री के जीवन के विभिन्न रूपों को अपनी भूमिकाओं से परदे पर जीवंत किया. आज वह हमारे बीच में नहीं है लेकिन उनकी आवाज़, अंदाज, अभिनय सब सिनेमा रहने तक जीवित रहेगा. हिंदी सिनेमा और रंगमंच में मजबूत महिला छवि की जब–जब बात होगी उनका चेहरा सबसे पहले याद आएगा.
(प्रोफेसर रमा दिल्ली विश्वविद्यालय के हंसराज कॉलेज की प्राचार्य हैं)
(यहां दिए गए विचार लेखक के नितांत निजी विचार हैं. यह आवश्यक नहीं कि डीएनए हिन्दी इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे और आपत्ति के लिए केवल लेखक ज़िम्मेदार है.)
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