डीएनए स्पेशल
अधिकतर हिंदी फिल्मों में स्त्री को आदर्शवादी और ममतामयी मां, बहन, भाभी, पुत्री, पत्नी और प्रेमिका के रूप में ही अधिक चित्रित किया जाता रहा है जो विद्रोह भी करती है तो क्षण भर के लिए.
डीएनए हिंदी: स्त्री-भागीदारी को लेकर हमेशा उदासीन रहा हिंदी सिनेमा अब जागरूक हो चुका है. नि:संदेह यह जागरूकता फिल्म उद्योग की खुद की नहीं है बल्कि महिलाओं द्वारा किए खुद में परिवर्तनों के आधार पर आयी है. ऐसा भी नहीं कि स्त्रियां पहले सशक्त और प्रतिभाशाली नहीं थीं, बस किनारे खड़ी अपनी पारी के इंतज़ार में थीं, जल्द ही उन्हें पता चल गया कि लाइन में खड़े होकर कभी मौका नहीं मिलेगा लिहाज़ा वह भीड़ को धक्का देकर आगे बढ़ने पर विवश हुईं. ठीक वैसे ही जैसे लड़के करते आ रहे हैं वर्षों से. सिनेमा के इतिहास को पलट कर देखें तो इन सौ वर्षों के लंबे समय में आवश्यक प्रस्थान बिन्दु होते हुए भी स्त्रियां हमेशा हाशिये पर रहीं. वजह यही है कि पुरुषों ने उन्हें हमेशा कमजोर समझा. उनकी कार्यक्षमता को कम आंका गया.
स्त्री अधिकारों से जुड़ी फिल्में
ऐसा भी नहीं है कि हिंदी में स्त्री-समस्या केंद्रित फिल्मों का निर्माण हुआ ही नहीं. दरअसल अधिकतर हिंदी फिल्मों में स्त्री को आदर्शवादी और ममतामयी मां, बहन, भाभी, पुत्री, पत्नी और प्रेमिका के रूप में ही अधिक चित्रित किया जाता रहा है जो विद्रोह भी करती है तो क्षण भर के लिए. भावना या विरोध के कारण अंततः समर्पण ही करती आयी है. सवाक फिल्मों के आरंभिक दौर से लगभग 1980 तक ऐसी फिल्मों का निर्माण हुआ जिसमें स्त्री अपने अधिकारों और अस्मिता के लिए तनकर खड़ी तो होती है परंतु जल्द ही अपने सामाजिक बंधनों कि जकड़न में आ जाती है. ऐसी फिल्मों में- चित्रलेखा, महल, दहेज, बिराज बहू, मदर इंडिया, सुजाता, मैं चुप रहूंगी, बंदिनी, काजल, ममता, साहब बीबी और गुलाम, पाकीज़ा, परिणीता, गुड्डी, आंधी, जूली, मौसम, राम तेरी गंगा मैली, तवायफ, निकाह, उमराव जान, अभिमान आदि कुछ बहुत ही महत्वपूर्ण फिल्में हैं.
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1980 के बाद बदला चरित्र
1980 के बाद जरूर स्त्री-चेतना से परिपूर्ण फिल्मों का निर्माण आरंभ हुआ जिसमें समानांतर सिनेमा ने बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. समानांतर सिनेमा ने स्त्री की उन्मुक्त भावनाओं को नया आसमान दे दिया जिसमें विचरण कर उन्हें अपनी आज़ादी के नए रंग दिखने शुरू हुए, अपने अधिकारों की नयी सूची उनके हाथ लग गयी. ऐसी फिल्मों में- मंडी, बाज़ार, भूमिका, मिर्च मसाला, महायात्रा, इजाज़त, प्रतिघात, रिहाई आदि. 1990 के बाद का हिंदी सिनेमा भूमंडलीकरण और उदारीकरण के प्रभाव से तेजी से बदला है. नए निर्देशकों ने अपनी नयी विचारधाराओं के द्वारा हिंदी सिनेमा को तमाम साहित्यिक विमर्शों से जोड़ दिया है. हिंदी सिनेमा और साहित्य में एक सामंजस्य स्थापित हुआ है. स्त्री विमर्श को हिंदी सिनेमा में हमेशा ही स्पेस मिलता रहा है. ‘दिशा’, ‘तर्पण’, ‘बवंडर’, ‘गॉड मदर’, , ‘वाटर’, ‘फायर’, ‘अर्थ’, ‘कामसूत्र’ ‘मातृभूमि’ ‘सत्ता’, ‘चमेली’, ‘अस्तित्व’, ‘जुबैदा’, ‘चांदनी बार’, ‘फैशन’, ‘हीरोईन’ , ‘नो वन किल्ड जेसिका’, ‘इश्किया’ जैसी फिल्मों ने स्त्री विमर्श को नया आयाम दिया है. इतना ही नहीं इन फिल्मों में स्त्री की बदलती छवि को बहुत ही संवेदनशीलता के साथ प्रस्तुत किया गया है.
21वीं सदी में सिनेमा में स्त्री
वर्ष 2014-15 स्त्री केन्द्रित मजबूत फिल्मों के लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण रहा. 21 वीं सदी के सिनेमा में बदलाव तब आया जब स्त्रियों ने सिनेमा में प्रवेश किया. अभिनेत्री से ऊपर उठाकर निर्देशक, तकनीकी आदि क्षेत्रों में उनकी भूमिकाएं बढ़ी हैं, स्त्री-भागीदारी को लेकर हमेशा उदासीन रहा हिंदी सिनेमा अब जागरूक हो चुका है. निःसंदेह यह जागरूकता फिल्म उद्योग की खुद की नहीं है बल्कि महिलाओं द्वारा किए खुद में परिवर्तनों के आधार पर आई है. ऐसा भी नहीं कि स्त्रियां पहले सशक्त और प्रतिभाशाली नहीं थीं, बस किनारे खड़ी अपनी पारी के इंतजार में थी, जल्द ही उन्हें पता चल गया कि लाइन में खड़े होकर कभी मौका नहीं मिलेगा लिहाजा वह भीड़ को धक्का देकर आगे बढ़ने पर विवश हुईं, ठीक वैसे ही जैसे लड़के करते आ रहें हैं वर्षों से.सिनेमा के इतिहास को पलट कर देखें तो इन सौ वर्षों के लंबे समय में आवश्यक प्रस्थान बिंदु होते हुए भी स्त्रियां हमेशा हाशिए पर रहीं. वजह यही है कि पुरुषों ने उन्हें हमेशा कमजोर समझा. उनकी कार्यक्षमता को कम आंका गया.
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स्त्री कथन से जुड़ी खास फिल्में
इधर के वर्षों में स्त्री-सिनेमा के विकास में विशेष रूप से इसलिए रेखांकित करने का मन होता है क्योंकि इस वर्ष लगभग एक दर्जन ऐसी फिल्मों का निर्माण हुआ जिसने स्त्री छवि को पूरी तरह बदल दिया. ऐसा पहली बार हुआ जब हमने हिंदी सिनेमा में स्त्री के उस रूप को बड़े स्तर पर देखा गया जिस रूप को वह वर्षों से अंदर-अंदर जी रही थी. उनकी तमाम दमित भावनाओं को कई रूपों में देखने के लिहाज से यह वर्ष बहुत महत्वपूर्ण रहा. इस वर्ष प्रदर्शित फिल्मों के नामों पर जरा गौर फरमाएं- 'डेढ़ इश्किया', 'हाईवे', 'गुलाब गैंग', 'क्वीन', 'कांची', 'रिवाल्वर रानी', 'मरदानी' 'हैदर', 'लक्ष्मी', 'अनुराधा', 'सुपर नानी', 'रंगरसिया', 'मेरीकाम'. ये तो उन फिल्मों की सूची है जिसमे स्त्री जीवन के उत्कर्ष का उत्सव है. अभी कई ऐसी फिल्में भी हैं - जिनमे हैं तो स्त्री मुक्ति के स्वर लेकिन उनकी प्राथमिकता पैसा कामना मात्र है - ऐसी फिल्मों में आप बिपाशा बसु, सनी लियोन, पूनम पांडे, नीतू चंद्रा, शर्लिन चोपड़ा जैसी कुछ अधिक उन्मुक्त नायिकाओं की फिल्मों को शुमार कर सकते हैं. इधर जिन स्त्री केंद्रित फिल्मों का निर्माण हुआ उसके केंद्र किसी दबाई, सताई और घबराई स्त्री का चेहरा नहीं है बल्कि पुरुषों को चुनौती देती उस स्त्री का अक्स है जिसमें अपनी कमजोरी को ही अपनी ताकत बना ली है.
वर्ष के आरंभ में ही आई निर्माता विशाल भारद्वाज निर्देशक अभिषेक चौबे की 'डेढ़ इश्किया'. जो लोग इसका पहले हिस्सा 'इश्किया' देख चुके होंगे उन्हें जरूर अंदाजा हो गया होगा कि स्त्री किस हद तक शातिर हो सकती है. अब सवाल यह है कि क्या शातिर होना या स्त्रियों को भोगने का पास सिर्फ पुरुषों के पास ही है? उत्तर होगा नहीं. क्योंकि 'डेढ़ इश्किया' एक ऐसे ही औरत की कहानी है जिसे अपनी ताकत और मजबूती दोनों का गहन अंदाजा है. जिस यौनिकता को पुरुषों ने हमेशा पर्दे के अंदर भोगा उसी को ढाल बना कर 'डेढ़ इश्किया' की नायिका ने खुलेआम अपने फायदे के लिए इस्तेमाल किया किया. प्रेम के नाम पर संभोग के लोलुप चाचा-भतीजों की बाट लगा दी.
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(प्रोफेसर रमा दिल्ली विश्वविद्यालय के हंसराज कॉलेज की प्राचार्य हैं)
(यहां दिए गए विचार लेखक के नितांत निजी विचार हैं. यह आवश्यक नहीं कि डीएनए हिन्दी इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे और आपत्ति के लिए केवल लेखक ज़िम्मेदार है.)
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