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Child Education Atmosphere: बच्चों के स्कूलों और उनके घरों में भय और डर के आधार पर सीखने की परंपरा ना हों. इस बारे में महेश चन्द्र पुनेठा का लेख...
School Education Environment: यदि गौर से देखें तो पाएंगे कि दुनिया छोटी-बड़ी सत्ताओं का एक संजाल है. परिवार से लेकर देश और दुनिया के स्तर तक अनेक सत्ताएं हैं. परिवार से ही शुरू कीजिए- मुखिया की परिवार के सदस्यों पर, पति की पत्नी पर, सास की बहू पर, माता-पिता की बच्चों पर, जेठानी की देवरानी पर, हर बड़े की अपने से छोटे पर सत्ता. परिवार से बाहर आ जाइए-गुरु की शिष्य पर, पुरोहित की जजमान पर, ताकतवर की कमजोर पर, अधिक जानकार की कम जानकार पर, पढ़े-लिखे की अनपढ़ पर, खूबसूरत की बदसूरत पर, बड़ी जाति वाले की छोटी जाति वाले पर, अधिक पैसे वाले की कम पैसे वाले पर, बहुसंख्यक की अल्पसंख्यक पर, शहर की गांव पर, बड़े देश की छोटे देश पर सत्ता. हर एक की कोशिश रहती है कि पदसोपान क्रम में उससे नीचे का व्यक्ति या संस्था उसकी आज्ञा का अक्षरश: पालन करे. थोड़ी भी ढील ऊपर वाले को बर्दाश्त नहीं होती है. अपने वर्चस्व को बचाए रखना उसकी प्राथमिकता में रहता है. सत्ता अपनी बात मनवाने के लिए हमेशा से भय का सहारा लेती आ रही है. उसके द्वारा भय बनाने के लिए साम, दाम, दंड, भेद आदि सभी तरीकों का इस्तेमाल किया जाता रहा है. वह मनुष्य के भीतर काल्पनिक भय पैदा करने से भी बाज नहीं आती है. इतना ही नहीं मनुष्य के भीतर बैठे भय का इस्तेमाल कर अपनी जरूरत को सिद्ध करती है. सत्ता में बैठे लोगों के भीतर भी एक डर है, जैसा कि हिंदी के जनपक्षधर कवि गोरख पांडे अपनी कविता में कहते हैं- वे डरते हैं/कि एक दिन/निहत्थे और गरीब लोग/उनसे डरना/बंद कर देंगे. इसलिए वह भय को बनाए रखना चाहती है. भय, हमेशा सत्ता के हित में होता है लेकिन जिसे भय से संचालित किया जाता है उसे भय हर तरह से हानि पहुुंचाता है.
भय अनेक मानसिक विकृतियों को जन्म देता है
भय, केवल व्यक्तित्व विकास को ही अवरुद्व नहीं करता है बल्कि भय एक ऐसा पेनकिलर है जो तात्कालिक राहत भले देता हो लेकिन भयग्रस्त व्यक्ति में झूठ, पाखंड, चोरी, नकल, बहानेबाजी जैसी अनेक मानसिक विकृतियों को जन्म दे जाता है. भय मनुश्य को अविश्वासी बना देता है. अविश्वास मनुष्य को कमजोर करता है. उसका आलोचनात्मक विवेक खो जाता है तथा आत्मविश्वास कमजोर पड़ जाता है. एक भय दूसरे भय को जन्म देता है और इस तरह भय का दुष्चक्र चल पड़ता है. भय का यह दुष्चक्र किसी भी कार्य को तन्मयता से नहीं करने देता है. भयग्रस्त व्यक्ति प्रश्न करने का साहस भी नहीं कर पाता है. प्रतिरोध तो बहुत दूर की बात रही. वह अपने साथ होने वाली जोर-जबरदस्ती और अन्याय को अपनी नियति मान लेता है. इस तरह एक ऐसी पीढ़ी तैयार होती है जो डरी-सहमी और दब्बू होती है. जो अपने से ताकतवर की आज्ञा मानने के लिए हरदम तैयार रहती है. हां, यदि अवसर मिले तो वह अपने से कमजोर को भयग्रस्त करने की कोशिश अवश्य करती है, ऐसा करना उसे नैतिक दृष्टि से भी गलत नहीं प्रतीत होता है. अपनी पत्नी, बच्चों और नौकरों पर हिंसा करने वाले लोग ऐसे ही होते हैं. भय, व्यक्ति को अपराध और प्रतिहिंसा की ओर भी प्रवृत्त करता है. दुनिया के तमाम हिंसक और आतंकी लोगों का मनोवैज्ञानिक अध्ययन किया जाय, वे किसी न किसी भय से ग्रस्त मिलेंगे, भले ही वह काल्पनिक ही हो. घृणा, रागद्वेष और क्रूरता भय की ही उपज है. भयग्रस्त आदमी किसी को प्रेम कर ही नहीं सकता.
भय से संचालित समाज डर में जीता है
हमारे चारों ओर भय ही भय व्याप्त हैं. हम भय से संचालित हैं और यही सबसे बड़ी गड़बड़ी का कारण है. इसी का परिणाम है कि जैसे ही कहीं तनिक भय कम हुआ नहीं या निगरानी रखने वाला नजरों की ओट हुआ नहीं, हम अराजक होने लगते हैं. यदि हम बोध से संचालित होते तो ऐसा नहीं होता, इसलिए भय नहीं बोध से संचालित समाज एक अच्छा समाज होता है. भय से संचालित व्यक्ति दूसरे को भी भयग्रस्त करता है. अपने भीतर के भय को दूसरे में संक्रमित करना चाहता है. इतना ही नहीं लगातार भय बना रहना मस्तिष्क को भी गहरे आघात पहुंचाता है. वैज्ञानिकों के अनुसार भय के लगातार बने रहने से अवसाद, रक्तचाप और नासूर जैसे रोगों के होने का खतरा होता है. अत्यधिक तनाव के चलते व्यक्ति अपने जीवन तक को खतरे में डाल देता है. अपनी गलतियों या सीमाओं को दूसरों के साथ नहीं बांट पाता है, उन्हें छुपाने लगता है. नषे का शिकार हो जाता है. आत्महत्या तक कर डालता है. बावजूद इसके सत्ता द्वारा हमेशा भय को उसके हित में ही बताया जाता है जिसके खिलाफ उसे इस्तेमाल किया जाता है. आश्चर्य यह है कि भय का शिकार व्यक्ति स्वयं भी उसे अपने हित में मानता है. सत्ता भय के पक्ष में अपने तर्क गढ़ती है. उसे महिमामंडित करते हुए आवश्यकता घोषित करती है. व्यवस्था या अनुशाषन बनाने के लिए उसे जरूरी बताती है. यहां तक कहने में भी गुरेज नहीं करती है कि भय के बिना प्रेम भी संभव नहीं है. हमारी स्कूल जैसी संस्थाएं लंबे समय से इन तर्कों का इस्तेमाल करती आ रही हैं. इस रूप में वे हमेशा राजनैतिक सत्ता की मददगार साबित हुई हैं इसलिए चहेती भी लेकिन इधर शिक्षा में हुए कुछ महत्वपूर्ण प्रयोगों और अध्ययनों के दबाव तथा लोेकतांत्रिक चेतना के विस्तार के चलते विद्यालय को आनंदालय बनाने की बात होने लगी है जिसमें बच्चे को भयमुक्त वातावरण और स्वतंत्रता देने पर बल दिया जा रहा है.
बच्चों को कराया जाए स्पेशल फील
शिक्षा के महत्वपूर्ण दस्तावेजों में यह स्वीकार किया गया है कि बच्चे के स्वस्थ एवं संतुलित व्यक्तित्व के विकास के लिए भयमुक्त वातावरण का होना जरूरी है. सीखने की प्रक्रिया भयमुक्त वातावरण में ही संभव है. बच्चा वहीं सीखता है, जहां उसे महत्वपूर्ण माना जाता है. आज शिक्षा का एक उद्देश्य ज्ञात-अज्ञात कारणों से बच्चे के भीतर पैठे भय से उसे मुक्त करना भी माना जा रहा है. बच्चा एक स्वतंत्रचेता मनुष्य तभी बन सकता है, जब उसका मन-मस्तिष्क प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष भयों से मुक्त हो. यह मुक्ति भय के द्वारा संभव नहीं है. भय मनुष्य को अंधभक्त बना सकता है, अनुयायी बना सकता है, स्वतंत्रचेता तथा अन्वेषक नहीं. भय के द्वारा नकल करना सिखाया जा सकता है, मौलिक चिंतन करना नहीं. चिंतन के लिए संवाद जरूरी है जबकि भय संवाद की संभावना समाप्त कर देता है. जहां भय होता है, वहां निर्देश और आज्ञापालन तो हो सकता है, संवाद और प्रश्न नहीं. भय से केवल मशीनी कार्य करवाए जा सकते हैं. बच्चे को भय दिखाकर हम कहीं न कहीं अप्रत्यक्ष रूप से बच्चे को भी दूसरे को भयग्रस्त करने की शिक्षा देते हैं-यदि कोई आपकी बात नहीं मानता है या गलती करता है तो उसे भय दिखाया जाए.
बच्चों से करें आत्मीय संवाद
भय के इन दुष्प्रभावों को देखते हुए ही शिक्षा अधिकार अधिनियम के अंतर्गत शारीरिक और मानसिक दंड को पूरी तरह से प्रतिबंधित कर दिया गया है. यह कहा जा रहा है कि बच्चे को भय दिखाने की नहीं बल्कि उससे आत्मीय संवाद करने की जरूरत है ताकि उसके भीतर सही-गलत के बीच अंतर करने का एक बोध पैदा हो. यह नहीं भूलना चाहिए कि बोध कभी भी भय से पैदा नहीं किया जा सकता है. यदि भय से पैदा करने की कोशिश करेंगे तो सजा का डर खत्म होते या अभी कौन देख रहा है, का भाव पैदा होते ही, अपनी मनमानी करने लग जाएगा. उसके भीतर की गलत प्रवृत्तियां खत्म नहीं होंगी, मौका मिलते ही फिर उभर आएंगी. दरअसल गलत प्रवृत्तियां दमन और कुंठा के परिणाम होती हैं. भय बच्चे के लिए लू है, उसे गुनगुनी धूप समझने की भूल नहीं की जानी चाहिए.
बुनियादी जरूरतों से दूर हैं हमारे स्कूल
स्कूल में भयमुक्त वातावरण बनाने में शिक्षक की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका मानी गई है, पर यहां कुछ प्रश्न खड़े होते हैं कि क्या बंधे-बंधाए ढांचे तथा अभावग्रस्त विद्यालयों, जहां बच्चों के बैठने तक की उचित व्यवस्था नहीं है, स्वच्छ पानी, शौचालय और खेल के मैदान की बात तो दूर रही, ऐसे में क्या भयमुक्त वातावरण का सृजन संभव है? भयमुक्त शिक्षण के लिए जिस बड़े धैर्य, कल्पनाशीलता, अध्ययन और उच्चकोटि के कौशल की आवश्यकता होती है क्या हमारे शिक्षक उससे लैस हैं? क्या एक ऐसा षिक्षक जिसका खुद का भविश्य सुनिश्चित नहीं है और तमाम तरह के भय एवं दबावों से संचालित है, उससे इन बातों की आशा की जा सकती है? उदाहरण के लिए परीक्षा को ही ले लिया जाए.
परीक्षा अपने-आप में एक बड़ा भय है जिसके दबाब में न केवल बच्चा बल्कि शिक्षक भी रहता है. दोनों की कोशिश परीक्षा को साधने की रहती है. परीक्षा परिणामों के आधार पर ही शिक्षक का मूल्यांकन होता है. परीक्षा में अधिक अंक गुणवत्ता की एकमात्र कसौटी मानी जाती है. अतः शिक्षक की कोशिश रहती है कि येन केन प्रकारेण परीक्षा को साधा जाय. बच्चे की रूचि हो या न हो, उसे पढ़ने को मजबूर किया जाता है. जब शिक्षक स्वयं दबाब में हो तो उससे दबावमुक्त या रूचिकर शिक्षण की आशा कैसे की जा सकती है? परीक्षा जब खास तरह के कौशलों और दक्षताओं के मापन का माध्यम बन जाय तब शिक्षक की मजबूरी बन जाती है कि वह बच्चों में उन्हीं खास कौशलों और दक्षताओं के विकास के लिए शिक्षण करे. क्या परीक्षा केंद्रित हो चुकी ऐसी शिक्षा में शिक्षक के लिए भयमुक्त होकर शिक्षण करना संभव है?
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इसी तरह जब बच्चे के चारों और तमाम तरह के भय और तनाव मौजूद हैं-भूत-प्रेत या ईश्वर का भय, छोटी सी गलती में भी अपमानित होने का भय, अपने प्रिय को खो देने का भय, दुर्घटना का भय, अलग-थलग हो जाने का भय, सपने टूट जाने का भय, प्रतियोगिता में असफल हो जाने का भय, पीछे छूट जाने का भय, मजाक उड़ाए जाने का भय, आतंकवाद का भय, ठगे जाने का भय, लूटे जाने का भय, अनिश्चित भविष्य का भय, जंगली जानवरों का भय आदि, तो क्या उसे केवल विद्यालय को आनंदालय बनाकर भयमुक्त किया जा सकता है? क्या यह काम अकेले शिक्षक द्वारा किया जा सकता है?
भयमुक्त वातावरण बनाने के लिए विद्यालय में पर्याप्त मानवीय और भौतिक संसाधनों का होना पहली शर्त है. अतिशय काम के बोझ तले दबे शिक्षक भयमुक्त वातावरण का सृजन नहीं कर सकते हैं. भयमुक्त कह देने से वातावरण भयमुक्त नहीं हो जाता है और न केवल परीक्षा के भय को कम करने के नाम पर कुछ सुधार कर देने से. भयमुक्त वातावरण बनाने के लिए जिस तैयारी की आवश्यकता है, अभी तक उसकी नितांत कमी है. भयमुक्त वातावरण का मतलब बच्चों की ओर से मुंह मोड़ लेना नहीं होता है. ऐसा नहीं होता है कि वे जो चाहें उन्हें करने दिया जाय. भयमुक्त वातावरण में तो स्कूल और शिक्षक की जिम्मेदारी और अधिक बढ़ जाती है. अतिरिक्त प्रयासों की जरूरत पड़ती है. बच्चों को भय दिखाकर पढ़ना तो आसान होता है, भय के बिना पढ़ाने के लिए तो शिक्षक को अतिरिक्त कल्पनाशील और रचनात्मक होने की आवश्यकता पड़ती है. उसे नित नए प्रयोग करने होते हैं. शिक्षण के प्रभावशाली तरीके खोजने पड़ते हैं. दुर्भाग्य यही है कि हमने भयमुक्त शिक्षा की बात तो स्वीकार कर ली लेकिन उस दिशा में की जाने वाली आवश्यक तैयारी अभी तक नहीं कर पाए हैं. भयमुक्त शिक्षा एक जुमला बनकर रह गया है.
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भयमुक्त शिक्षा के लिए पूरे ढांचे को बदलने की आवष्यकता है. शिक्षक ही नहीं अधिकारियों-जनप्रतिनिधियों का दृष्टिकोण बदलने की जरूरत है. हमारे शिक्षक प्रशिक्षण इस कोटि के नहीं हैं कि वे शिक्षकों को इतना क्षमतावान बना सकें कि वे बिना भय के बच्चों को सिखाने में सक्षम हों. जब शिक्षक प्रशिक्षण डिग्रियां बेची जा रही हों तो कल्पना की जा सकती है कि कैसे शिक्षक तैयार हो रहे होंगे. इसके लिए शिक्षक शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ाए जाने की आवश्यकता है. भयमुक्त शिक्षा का औजार तो हमने पकड़ लिया लेकिन उसे चलाने का कौशल और उसकी समझ हमारे पास नहीं है, जिसके चलते अपेक्षित परिणाम नहीं प्राप्त हो पा रहे हैं. स्कूल में भयमुक्त वातावरण का सृजन केवल षिक्षक के हाथ में नहीं है इसके लिए परिवार , समुदाय, स्कूल , शिक्षक, प्रशासन और सरकार को मिलकर काम करना होगा. किसी एक संस्था या व्यक्ति पर इसे छोड़ा नहीं जा सकता है.
(महेश चन्द्र पुनेठा लेखक और कवि हैं. वे बच्चों की शिक्षा को लेकर चिंतित रहते हैं)
(यहां दिए गए विचार लेखक के नितांत निजी विचार हैं. यह आवश्यक नहीं कि डीएनए हिन्दी इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे और आपत्ति के लिए केवल लेखक ज़िम्मेदार है.)
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